
पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल के मंत्री राव शिवबहादुर सिंह (पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह के पिता) को भ्रष्टाचार का दोषी पाया गया और सजा भी हुई। उन्हें एक हीरा खनन कंपनी से रिश्वत लेने का दोषी पाया गया था। गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस समस्या से निपटने के लिए संतनम समिति का गठन किया और सन 1960 के दशक में प्रताप सिंह कैरों से जुड़े घोटाले के चलते यह चर्चा लगतार चलती रही। सन 1970 के दशक में मंत्री एलएन मिश्रा का नाम आयात लाइसेंस घोटाले में सामने आया। बाद में उनकी बम हमले में रहस्यमय मौत हो गई। 1980 का दशक एआर अंतुले घोटाले और बोफोर्स घोटाले के नाम रहा।
1990 के दशक में सेंट किट्स घोटाला, जैन हवाला कांड, सुखराम दूरसंचार घोटाला और लखूभाई पाठक धोखाधड़ी मामला चर्चा में रहे। इनमें चंद्रास्वामी और पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के नाम तक सामने आए। 21वीं सदी का पहला दशक कोलगेट, 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन, राष्ट्रमंडल खेल और व्यापमं घोटाले लेकर आया। बहरहाल उच्च स्थानों पर भ्रष्टाचार की चर्चा से कोई ठोस नतीजा नहीं निकलता। इस मामले में मीडिया ही खबरों को पेश करता है। परिणाम नजर नहीं आते।
आम चुनाव 2014 के पहले प्रचार अभियान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी, 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा।' तो क्या देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था भ्रष्टाचार से इसलिए लड़ रही है क्योंकि नेतृत्व में परिवर्तन हुआ है। नेता मायने रखते हैं लेकिन केवल नेतृत्व में बदलाव को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना कोई ठीक नहीं। 2014 के लोकसभा चुनाव में एक सर्वेक्षण में शामिल लोगों में से 12 प्रतिशत ने कहा था कि भ्रष्टाचार उनके लिए सबसे बड़ी चिंता है। इससे आगे केवल मुद्रास्फीति थी जिसे 19 प्रतिशत लोगों ने बड़ी समस्या बताया था। भारत जैसे व्यापक समाज में अब भ्रष्टाचार का पता लगाना और आसान है। सामंती संस्कृति के साथ ही उच्च पदों पर खराब व्यवहार के प्रति सहिष्णुता कम होती जा रही है। सार्वजनिक स्थानों पर बैठकर धन के आकर्षण से बच पाना मुश्किल हो सकता है लेकिन आम जनता नेताओं से यही उम्मीद करती है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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