संयम की साधना “पर्युषण” भारत में आन्दोलन बने

राकेश दुबे@प्रतिदिन। हाल ही में घटी हिंसक घटनाओं के दौरान देश में  “पर्युषण” का विचार सामने आता है। पर्युषण पर्व या संवत्सरी हजारों वर्षों से हमारी स्मृति में हैं। इस महापर्व के आठ दिनों में यथासंभव संयम की साधना, फिर आठवें दिन उपवास और अगले दिन सब से क्षमायाचना ही इसकी सफलता है। ‘अणुव्रत आंदोलन के प्रणेता’ आचार्यश्री तुलसी ने तो इस क्षमायाचना दिवस को ‘मैत्री दिवस’ का ही नाम दे दिया था। क्षमायाचना दिवस का अर्थ इससे गहरी व्यापकता में बदल गया था। फिर भी यदि यह परंपरा मात्र ‘जैन’ समाज के दायरे में सिमटी रखी जा रही हो तो यह सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिए विचारणीय क्यों नहीं है?

क्षमाशील होना मानव स्वभाव का अंग हो और किसी भी तरह के ऊपरी या बाहरी प्रयत्नों की कोशिशें क्षीणतर होती जाएं तभी क्षमा की अर्थवत्ता प्रतिष्ठित हो सकती है। इसके लिए सदाचरण की वृत्ति परमावश्यक है। हम सभी जानते हैं कि आचरण में सदाशयता, शुद्धता और मृदुता आ जाने के बाद किसी अन्य बात की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती। मानव-विकास और सभ्यता के सभी अवलंबनों में सदाचरण का स्थान प्रमुख माना जा सकता है। सदाचरण की अपेक्षा सदैव समर्थ व्यक्ति से ही की जाती है। जो असहाय है, असमर्थ, अशक्त है उसके प्रति यदि समर्थ व्यक्ति सदाशयी हो, सद्व्यवहारी रहे तो अनेक तरह की विसंगतियों से मुक्ति मिल सकती है। क्षमा करने का वास्तविक कर्तव्य समर्थव्यक्ति   का ही है। माना भी जाता है कि क्षमा करने के लिए प्रबल क्षमता की जरूरत है।

क्षमाशीलता के लिए हमारे शास्त्रों बहुत कुछ कहा गया है। प्रतिक्रमण सूत्र हो या ऋग्वेद, सभी ने क्षमाशीलता के लिए अभिप्रेरित किया है। “मेरी सबके साथ मित्रता है/किसी से वैर-शत्रुता नहीं/मैंने सब प्राणियों को क्षमा किया है/मुझे भी सब क्षमादान दें। यह भी कहा है, मेरी वाणी का उपयोग इस जगत के मंगल के लिए हो/सारे द्वेष भस्मीभूत हो जाएं/ हमारे व्यवहार का यही सहयोग हो।“श्रीमद् भगवद्गीता को देखें या गांधी के सत्य के प्रयोगों को और कुरान अथवा किसी अन्य शास्त्र को- सहिष्णुता, सदाचरण और क्षमा के प्रसंग पर सभी जगह मिलती-जुलती राय हमारे सामने आती है।

हर व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति से सौम्य आचरण की अपेक्षा करता है। लेकिन वह तभी संभव हो सकता है जब क्षमा, सदाचरण और सहिष्णुता की भावना प्रकट हो। ऐसी भावना प्रकट होना निश्चय ही आदर्श स्थिति होती है। असहिष्णुता से रचनात्मक स्वभाव और दृष्टिकोण नष्ट होता है और अंतत: मनुष्य में जो अकूत क्षमता है, उसका यथोचित इस्तेमाल नहीं हो पाता। इसका खमियाजा व्यक्ति को स्वयं तो उठाना पड़ता ही है, सामाजिक क्षति भी नहीं रोकी जा सकती। इसीलिए यह जरूरी है कि अपने निजी व्यवहार में हम सहिष्णु बनें। इसीलिए सहिष्णुता के प्रशिक्षण और प्रयोग सलक्ष्य होने चाहिए।

मैत्री दिवस  या संवत्सरी ‘जैन’ समाज  की नही ‘जन-जन’ का आदर्श व वास्तविक सेतु बन सकता हैं। इसके लिए पहल के रूप में सरकार कदम उठाए। अच्छी और स्वस्थ परंपराओं को जीवित रखना क्या सरकार का काम नहीं? इसके लिए प्रयोग और प्रशिक्षण होने चाहिए। पर्युषण पर्व को एक ‘प्रयोग’ माना जा सकता है। पर्युषण के आठ दिनों में हर स्तर पर संयम की साधना के अवसर सुलभ होते हैं। प्रयोग के तौर पर तो यह अवधि सीमित है, पर इससे बाहर निकल कर यह अवसर जब हमारे दैनंदिन का अंग बन जाएगा तब हमारा व्यवहार व स्वभाव सहज ही बदलना शुरू हो जाएगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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