
अब पूरे विपक्ष में सन्नाटा पसरा है। बराए नाम कांग्रेस देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन उसके नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में वह गुण अब तक नहीं दिखा जिसे राष्ट्रीय नेतृत्व के रूप में पहचाना जा सके। कांग्रेस में यह बात नीचे तक घर कर गई है की कांग्रेस में राहुल के अलावा कोई दूसरा नेता ही नहीं है, लेकिन यह पार्टी का दुर्भाग्य ही है कि उसमे एक भी ऐसा व्यक्तित्व नही बचा है जो गांधी-नेहरू परिवार को चुनौती देने की कोई हिम्मत जुटाए।
दूसरी ओर ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल भाजपा और नरेन्द्र मोदी के मुखर आलोचक रहे हैं, लेकिन ममता भाजपा की ओर से लगातार मिलने वाली चुनौतियों से अपने घर में ही घिर गई हैं, और केजरीवाल पंजाब और दिल्ली निकायों के चुनावों में मिली हार से अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। ऐसे में नितीश कुमार के फैसले से नाराज चल रहे शरद यादव से विपक्ष उम्मीद लगाए हुए है, परन्तु शरद यादव के साथ न तो अपनी पार्टी है और न जनाधार। शरद यादव का प्रयोग विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच एकता कायम करने के संवाद-सूत्र के रूप में हो सकता है। यह भी विचारणीय मुद्दा है कि शरद यादव राजनीति की धुरी बनेगे या परिधि में रहकर, अपने तेवर के विपरीत कुछ करेंगे। अभी तो मुश्किल लगता है कि वे अपनी पार्टी छोड़कर इस नई भूमिका में आना चाहेंगे।
दूसरे स्वीकार्य व्यक्तित्व के एन गोविन्दाचार्य हो सकते है, पर वे अपने तरीके से परिवर्तन की राह के राहगीर हैं। लोकतंत्र को कायम रखने के लिए छिटके हुए विपक्षी राजनीतिक दलों का यह कर्त्तव्य बनता है कि आपसी मतभेद, स्वार्थ और अहंकार को छोड़कर, एक नेतृत्व चुने और एक साझा राजनीतिक मंच बनाये। एकांगी राजनीति में सबसे पहले लोकतंत्र का संतुलन समाप्त होता है, फिर देश दिशाहीन होने लगता है, उसके बाद ....!
यह समय सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए सोचने का है। राजनीति कैसी हो ? जिससे देश का लोकतान्त्रिक स्वरूप जीवित रह सके। सोचिये।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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