
फिल्म की कहानी एम्स्टर्डम से शुरू होती है। हैरी (शाहरुख खान) एक टूर गाइड है। वह गुजरात के एक हीरा व्यापारी के परिवार को यूरोप के विभिन्न देशों में घुमाता है। सेजल (अनुष्का शर्मा) उसी हीरा व्यापारी की बेटी है, जिसकी सगाई इसी टूर के दौरान एम्सटर्डम में होती है। उसकी सगाई की अंगूठी कहीं खो जाती है, जिसके चलते मंगेतर से उसका झगड़ा हो जाता है। वह अंगूठी ढूंढने के लिए रुक जाती है और हैरी को अपने साथ चलने के लिए मजबूर कर देती है। हैरी को मजबूरन उसका साथ देना पड़ता है। इस खोज के दौरान दोनों की मनोस्थिति और उनके बीच पनपे रिश्तों के उतार-चढ़ाव को पेश करने की कोशिश यह फिल्म करती है।
शुरू के 15-20 मिनट तक फिल्म मजेदार लगती है। उस समय ऐसा लगता है कि आगे कुछ और मजेदार देखने को मिलेगा, लेकिन इंटरवल तक आते-आते यह फिल्म अपनी रवानगी बरकरार नहीं रख पाती। फिर भी उम्मीद बची रहती है कि शायद इंटरवल के बाद इम्तियाज कोई 'एक्स फैक्टर' लेकर आएंगे लेकिन इंटरवल के बाद तो 'जब हैरी मेट सेजल' पूरी तरह से खो जाती है। ऐसा लगता है कि कहानी को शाहरुख-अनुष्का और यूरोपीय शहरों के खूबसूरत एम्बियेन्स के सहारे खींचने की कोशिश की जा रही है। एक प्रेम कहानी देखते हुए जैसी अनुभूति होनी चाहिए, वैसी इसमें नहीं होती। एकाध घटनाक्रम तो बेहद नाटकीय और अटपटे लगते हैं।
पटकथा में कोई जान नहीं लगती। ऐसा लगता है कि किसी विषय को उठा लिया गया है और कुछ लटकों-झटकों के सहारे उसे किसी तरह पूरा कर देने का उपक्रम चल रहा है। हां फिल्म की सिनेमेटोग्राफी बहुत खूबसूरत है। सिनेमेटोग्राफर ने एम्स्टर्डम, प्राग और बुडापेस्ट के सिटी स्केप को कैमरे में खूबसूरती से कैद किया है। फिल्म विजुअली अच्छी लगती है। सुंदर दृश्यों को देख कर आंखों को सुकून मिलता है। लेकिन क्या एक फिल्म के अच्छा होने के लिए सिर्फ यही काफी है?
फिल्म का गीत-संगीत पक्ष औसत है। एकाध गाने कानों को भले लगते हैं। खासकर गाना 'राधा' अच्छा लगता है। अनुष्का शर्मा ने सेजल के रूप में बहुत अच्छा अभिनय किया है। उनकी डायलॉग डिलीवरी और कॉमिक टाइमिंग शानदार है। भावनात्मक दृश्यों में भी वह अच्छी लगी हैं। हांलाकि उनका किरदार 'जब वी मेट' के करीना के किरदार से थोड़ा प्रभावित लगता है। शाहरुख खान भी इंटरवल तक अच्छे लगे हैं, लेकिन इंटरवल के बाद वह अपने पुराने रंग में आ जाते हैं, जिसकी शायद जरूरत नहीं थी।
दरअसल प्रेम के कई रंग हैं। जिसके हाथ में जो रंग आ जाता है, उसके लिए वही प्रेम होता है। प्रेम के मायने समझने की कोशिश पता नहीं कब से चल रही है। हर कोई इसे अपने ढंग से परिभाषित करने की कोशिश करता है। बतौर फिल्मकार इम्तियाज भी इसी कोशिश में मुब्तिला दिखाई देते हैं। उनकी 'सोचा न था', 'जब वी मेट', 'रॉकस्टार' आदि शानदार फिल्मों को देख कर उनकी सोच और प्रस्तुतीकरण के बारे में एक अच्छी धारणा बनती है। लेकिन 'जब हैरी मेट सेजल' में बतौर लेखक और निर्देशक इम्तियाज निराश करते हैं। शुरू के करीब आधे घंटे को छोड़ दें तो फिल्म बांध नहीं पाती है। ऐसा लगता है लव गुरु का तमगा उनकी सोच और प्रतिभा पर भारी पड़ रहा है।कम से कम यह फिल्म तो इसी ओर इशारा करती है।
स्टार- 2