राकेश दुबे@प्रतिदिन। हिंदी दिवस पर एक केंद्र सरकार के एक कार्यालय में जाने का मौका मिला। इस अवसर ने भारतीय भाषाओँ की वर्तमान दशा पर विचार का मौका दिया। संविधान की आठवीं अनुसूची में बढती भाषाएँ अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव को रोकने अक्षम है। सच तो यह है हमारी प्रारंभिक से उच्च शिक्षा तक आज भी अंग्रेजी की मुहताज है या बना दी गई है। बल्कि धीरे-धीरे पूरी शिक्षा-पद्धति अंग्रेजी के मकड़जाल में और फंसती जा रही है। गांव-गांव में इंग्लिश मीडियम में बच्चों को पढ़ाने का चलन बढ़ा है।
‘स्कूल’ नाम को कलंकित करने वाली सुविधाविहीन उन झोपड़पट्टियों में ‘ए माने सेब, बी माने बैल, सी माने बिल्ली और डी माने कुत्ता’ पढ़ते-पढ़ाते सुना जाता है। यह विडंबना ही है कि प्रधानमंत्री भले ही अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में अपनी बात रखने में देश की शान समझते हों, मगर डिजिटल इंडिया हो या स्टार्टअप इंडिया, सरकार की सारी योजनाएं अंग्रेजी की ओर ही जा रही हैं, क्योंकि बिना अंग्रेजी जाने आम आदमी के लिए यह सब दूर की कौड़ी है। ‘डिजिटल इंडिया’ के फेर में फिर सारे काम अंग्रेजी में होने लगे हैं। विचार का विषय है जब केन्द्रीय कार्यालयों में राजभाषा हिंदी ही उपेक्षित है, तो अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति क्या होगी!
भारत सरकार के कार्यालयों, अनुसूचित बैंकों और सार्वजनिक उपक्रमों में हिंदी के कार्यान्वयन का दायित्व जिस गृह मंत्रालय का है, उसके राजभाषा विभाग के सारे अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर आते हैं। जो खुद तदर्थ पद पर आसीन हो , वे अधिकारी क्या स्थाई नीति बनाएंगे? राजभाषा का काम विशेषज्ञता की अपेक्षा करता है, इसीलिए पहले रामधारी सिंह दिनकर जैसे साहित्यकारों को इसका प्रधान पद सौंपा गया था और इस विभाग में जो भी रचनात्मक कार्य हुए, वे उसी दौरान हुए। इसी को ध्यान में रखते हुए संसदीय राजभाषा समिति ने राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय के शीर्ष पद पर पुन: किसी वरिष्ठ साहित्यकार-सह-राजभाषाविद् को नियुक्त करने की संस्तुति की थी, पर चतुर अधिकारियों ने वह संस्तुति ही गायब करा दी। बाद में संसदीय समिति अपनी ही महत्वपूर्ण संस्तुति भूल चुकी है।
संविधान के अनुच्छेद ३४३[१] में प्रावधान किया गया था कि (१५ वर्ष बाद) देवनागरी में लिखित हिंदी संघ की राजभाषा होगी और शासकीय प्रयोजनों के लिए ‘भारतीय अंकों के अंतरराष्ट्रीय रूप’ का प्रयोग होगा। इसलिए, संविधान के अनुच्छेद ३५१ में केंद्र सरकार को यह निर्देश दिया गया कि वह हिंदी का विकास इस तरह करे कि वह भारत की ‘सामासिक संस्कृति’ (कंपोजिट कल्चर) की अभिव्यक्ति का माध्यम बने। इसके लिए वह मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: ‘आठवीं अनुसूची’ में उल्लिखित ‘राष्ट्रीय भाषाओं’ से शब्द ग्रहण करे।
पूरे संविधान में ‘आठवीं अनुसूची’ का संदर्भ केवल दो बार आया है। एक अनुच्छेद ३५१ में, जहां उसमें सम्मिलित भाषाओं से आवश्यकतानुसार पदावली, शैली आदि ग्रहण करने का निर्देश है। दूसरा संदर्भ अनुच्छेद ३४४ का है, जिसमें संविधान लागू होने के तत्काल बाद राजभाषा आयोग गठित करते समय आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भाषाओं के प्रतिनिधियों को भी शामिल करने का प्रावधान है, ताकि हिंदीतरभाषियों की कठिनाइयों का ध्यान रखा जा सके। ‘आठवीं अनुसूची’ तात्कालिक जरूरत थी, जिससे अन्य प्रमुख क्षेत्रीय भाषाओं के प्रतिनिधियों को यह अनुभव हो कि उनकी मातृभाषा को भी उचित सम्मान दिया जा रहा है। १९५० में जब संविधान लागू हुआ, तब आठवीं अनुसूची में १४ भाषाएं थीं, जो आज बढ़कर २२ हो गई हैं।
राजनीतिक तुष्टीकरण के कारण इस अनुसूची में ऐसी भाषाएं भी शामिल की गईं, जिनकी आबादी कुछ लाख मात्र हैं। परिणाम यह हुआ कि सरकारी संरक्षण पाने के लिए दर्जनों लोकभाषाएं, जिनका प्रशासनिक भाषा के रूप में अनुभव नहीं है, आठवीं अनुसूची में घुसने की कोशिशें करने लगी हैं। यदि ऐसा हुआ, तो यह प्रशासनिक कामों में भाषिक अराजकता पैदा करने वाला होगा। इसका लाभ अंग्रेजी को मिलेगा और हानि सभी भारतीय भाषाओं की होगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।