राकेश दुबे@प्रतिदिन। एक सर्वे के अनुसार पिछले साल अक्तूबर तक भारत में मोबाइल फोन के ग्राहकों की संख्या 1.1 अरब को पार कर गई। देश में मोबाइल की इतनी गहरी पहुंच होने की एक कारण यह भी है कि इससे लोग तुरंत बात कर लेते हैं और इसके माध्यम से तुरंत संवाद स्थापित होता है। अब लोगों को लिखकर बातें करने या इस काम के लिए किसी की मदद की जरूरत नहीं रही। भारत में टीवी और रेडियो की लोकप्रियता का कारण भी यही है। ब्रॉडकास्ट इंडिया सर्वे के मुताबिक, ग्रामीण भारत में कम आमदनी के बावजूद 17 प्रतिशत से अधिक घरों में टीवी है, जबकि एजेड रिसर्च का अध्ययन बताता है कि एफएम सुनने वाले लोगों में 73 प्रतिशत श्रोता इसके लिए मोबाइल फोन इस्तेमाल करते हैं।
यह भी एक तथ्य है की कई मुद्दों को देश के स्कॉलर, रिसर्चर और लेखकों ने ऑनलाइन या ऑफलाइन दस्तावेजों पर उकेर दिया है, फिर भी काफी कुछ का दस्तावेजीकरण या उनको खंगाला जाना बाकी है। भारत एक ऐसा देश है, जहां कई जानकारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप में पहुंचती रही है। इस सच का दायरा हम स्वास्थ्य, चिकित्सा, वास्तुकला, संस्कृति, शिल्प, कला, लोक कथा, लोक संगीत, भाषा आदि में स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं।
भारत में व्यक्तिगत जीवन का हिस्सा वैसे भी काफी कम है। किसी के भी जीवन का लगभग हर हिस्सा उसके परिवार, समुदाय, गांव या समाज के लिए खुली किताब की तरह होता है। यहां व्यक्तिगत इच्छाओं व स्वामित्व-अधिकार पर समाजों की प्रथाओं प्रथाओं पर लोकलाज की बंदिशें भी होती हैं। भारतीयों में दूसरों के जीवन में दखल देने की भी आदत होती है, और हम दूसरे की निजी व व्यक्तिगत जानकारी हासिल करने की अपनी इस मंशा को ‘दखल’ या ‘निजता का हनन’ नहीं मानते। भारतीय समाज के लोग यह जानने को हमेशा उत्सुक रहते हैं कि विवाह में कितना खर्च किया गया, नवविवाहित जोड़ा बच्चे की योजना कब बना रहा है? अगर बच्चे की नहीं सोच रहा, तो क्यों? यहां बच्चे को यह नहीं सिखाया जाता कि उन्हें बेडरूम के दरवाजे बंद रखने चाहिए; यहां तक कि जब वे सोने जाते हैं, तब भी नहीं।
भारत में हुए एक सर्वे में जब यह पूछा गया कि क्या वे अपनी निजता का संरक्षण चाहेंगे, यहां तक कि अपने मोबाइल फोन के डाटा की निजता चाहेंगे, तो पलटकर आया जवाब कि ‘हमारे पास छिपाने को आखिर है क्या?’ शहरी जीवन में भी यह आम है कि लोग जोर-जोर से अपने डेबिट कार्ड का पिन सार्वजनिक स्थान पर बताते देखे जा सकते हैं। दिलचस्प है कि कई भारतीय इसे सही मानते हैं। सच यही है कि भारतीय समाज डिजिटल क्रांति और निजता के अधिकार के दोराहे पर खड़ा है। जहां देश डिजिटल व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है, वहीं भारतीय जनजीवन में रची-बसी संस्कृति निजता को एक ऐसे अधिकार के रूप में लागू करने और समझने की राह में चुनौतियां पैदा कर रही है, जिसे हमारे जीवन व स्वतंत्रता का स्वाभाविक हिस्सा होना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।