
मैने अब तक सीखा है कि भारतीय भाषाओं को दो भागों में बाँटा जाता है। उत्तर और मध्य भारत की भाषाएँ सीधे संस्कृत पर आधारित है। दक्षिण की चार भाषाओं का मूल भिन्न है पर उन पर भी संस्कृत का यथेष्ट प्रभाव है। उत्तर भारत की भाषाएँ गिनते समय प्रायः लोग लिपियों पर ध्यान देते हैं पर लिपियाँ भाषाओं की भिन्नता का सदा सही माप नहीं देती।
यदि भोजपुरी की अपनी लिपि होती तो वह भी पंजाबी की तरह एक अलग भाषा मानी जाती। ऐसे कई और उदाहरण दिए जा सकते हैं, शायद इसी कारण विनोबा भावे जी ने कई दशक पूर्व आग्रह किया था कि सभी भारतीय भाषाएँ संस्कृत की लिपि यानी देवनागरी अपनाएँ। उनका यह सुझाव आया गया हो गया क्यों कि इसके अंतर्गत हिंदी और मराठी को छोड़कर अन्य सभी भाषाओं को झुकना पड़ता। इससे अहं टकराते, वास्तव में समाधान ऐसा हो कि देश के भाषायी समन्वय के लिए हर भाषा को किंचित त्याग करना पड़े।
त्याग को छोड़े समन्वय की बात करें तो सभी भारतीय लिपियों की उत्पत्ति ब्राम्ही लिपि से हुई हैं। यदि हम इस ब्राम्ही लिपि का ऐसा आधुनिक सरलीकरण और ''त्वरित उद्भव'' करें कि वह प्रचलित विभिन्न लिपियों का मिश्रज (hybrid) लगे तो उसे अपनाने में भिन्न भाषाओं को कम आपत्ति होगी। प्रश्न यहाँ यह है, क्या अपनी लिपि का लगाव छोड़ा जा सकेगा? उत्तर है, प्रथम तो यह कि मिश्रज लिपि पूरी तरह अपरिचित अथवा विदेशी न होगी। दूसरे, यदि कुछ कठिनाई होगी भी तो लाभ बड़े और दूरगामी हैं, यह भी ध्यान देने की बात है कि अंकों के मामले में ऐसा पहले ही हो चुका है - अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संसार की सभी लिपियों, अंकों के लिए अब 1,2,3,4,5. . .का प्रयोग करती हैं।
कुछ मित्र अंग्रेज़ी की रोमन लिपि अपनाने के पक्षधर हैं। मेरा मानना कुछ विपरीत है, ऐसा करना अनर्थकारी और हास्यास्पद होगा। भारतीय वर्णमाला को विश्व का अग्रणी ज्ञानकोश - इंसायक्लोपीडिया ब्रिटेनिका - भी ''वैज्ञानिक'' मानता है। भारतीय भाषाओँ और लिपियाँ पूरी तरह ध्वन्यात्मक (फोनेटिक) हैं अर्थात उच्चारण और वर्तनी (स्पेलिंग) में कोई भेद नहीं। ऐसी लिपि प्रणाली को छोड़कर यूरोपीय लिपि अपनाना सर्वथा अनुचित होगा।यह भी सही है कि इस समय हमारी लिपियों की संसार में कोई पूछ नहीं हैं। यदि सभी भारतीय भाषाएँ एक लिपि का प्रयोग करें तो शीघ्र ही इस लिपि को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिलेगी जैसी कि चीनी, अरबी आदि लिपियों को आज प्राप्त हैं। एकता में बल है। इसका सबसे बड़ा लाभ, एक-लिपि हो जाने पर भी भारतीय भाषाएँ भिन्न बनी रहेंगी।
दूसरा कदम कठि नकदम होगा एक भाषा को समस्त भारत में प्रधान बनाने का। यह हिंदी होगी। हिंदी के दक्षिण भारत में प्रसार के साथ दक्षिण की चार भाषाओं को उत्तर भारत में मान्यता मिले। यह अत्यंत महत्वपूर्ण बात है। हिंदी भाषियों की संकीर्णता ही हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने में सबसे बड़ी अड़चन है। दक्षिणी भाषाओं के प्रति उत्तर भारत में कोई जिज्ञासा नहीं हैं। यदि है तो उपहास-वृत्ति से ज्यादा कुछ नहीं। स्वाभिमानी दक्षिण भारतीय, जिनकी भाषाओं का लंबा इतिहास और अपना साहित्य हैं, वे भी हिंदी प्रसार प्रयत्नों का अकारण विरोध न करें।ऐसा होने पर उत्तर-दक्षिण का भाषायी वैमनस्य जाता रहेगा और तदजनित सद्भाव के वातावरण में सहज ही हिंदी को दक्षिण भारत में स्वीकृति मिलेगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।