राकेश दुबे@प्रतिदिन। रेल द्वारा दिल्ली से भोपाल आते समय, भोपाल में सबसे पहले स्वागत भानपुर में खड़े कचरे के बदबूदार पहाड़ करते हैं। भोपाल की यह जमीन दिल्ली की तरह पोली नहीं है, इस कारण जलते बुझते और बदबूदार धुआं फैलाते पहाड़ जमीदोंज नही हो सकते। सवाल यह खड़ा है कि इसके निपटान की कोई विधि है, पहले एक रास्त्ता खोजा गया था जैविक खाद संयंत्र जो अब बंद हो गया है। नगर निगम शहर के दूसरे हिस्से में, किसी दूसरे गाँव में कचरे का ऐसा ही पहाड़ खड़ा करने जा रही है। कचरे का पहाड़ यहाँ हो वहां, स्थान बदलने से उसके गुण धर्म तो नहीं बदलेंगे। फिर, हमें ही बदलना होगा।
इस मामले में 'हमारे पिछवाड़े ऐसा नहीं होगा' कचरा प्रबंधन में एक गेम चेंजर है। 80 के दशक की शुरुआत में अमेरिका और यूरोप के समृद्ध शहरों के कचरे के पहाड़ों को जहाजों पर लादकर अफ्रीकी देशों में ले जाया गया था। वह मामला एक घोटाले की तरह सामने आया था। इसके बाद ही हानिकारक कचरे को दूसरे देश ले जाने और उसके निपटान पर रोक संबंधी बेसल समझौते पर दुनिया भर में सहमति बनी। इस मामले में वैश्विक अमीरों की वह सोच उजागर हुई थी कि कचरा उनके पिछवाड़े नहीं रखा जाएगा। इसी सोच ने उस कचरे को अफ्रीका के गरीब निवासियों के पिछवाड़े भेजा था। लेकिन ये गरीब जब विरोध करने लगे तो अमीरों को अपना कचरा वापस लेना पड़ा और ऐसे तरीके खोजने पड़े कि कचरा उनके घर के सामने न जमा हो। पश्चिमी देशों में कचरा प्रबंधन का विकास ही इसी तरह हुआ है। उनके पास अपने कचरे को पिछवाड़े में ही खपाने, उसके पुनर्चक्रण या दोबारा इस्तेमाल लायक बनाने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया था।
लंबे समय से हमने अपने शहरों के पिछवाड़े का इस्तेमाल कचरा फेंकने के लिए किया है जबकि गरीब लोग वहां रहते हैं। लेकिन सामाजिक एवं राजनीतिक जागरूकता बढऩे और शिक्षा का स्तर बढऩे से अब ये लोग भी खुलकर कहने लगे हैं कि 'बस बहुत हो गया। अपना कचरा हमारे पिछवाड़े नहीं फेंक सकते हैं।' लेकिन उनके विरोध को अधिक तवज्जो नहीं दी जा रही है। शहरी प्रशासन और न्यायपालिका इस तरह के प्रदर्शनों को अक्सर गलत बताते रहते हैं। वजह यह है कि कचरा निपटान को नगर निगम का अहम काम समझा जाता है। ऐसे में लैंडफिल बनाने या कंपोस्ट संयंत्र बनाने के विरोध से खड़ी होने वाली अड़चनों को गैरजरूरी या गैरकानूनी माना जाता है।
नये कचरे घर के निर्माण को लेकर भोपाल के दूसरे छोर पर बसे गाँव वाले विरोध कर रहे है। उनकी तरह देश में और भी कई जगह कचरे को लेकर बगावत की घटनाएं बढ़ रही हैं। पुणे में उरुली देवाची गांव के लोगों ने मना कर दिया है कि अब वे इस शहर का कचरा अपने यहां नहीं डालने देंगे। बेंगलूरु में कन्नाहल्ली और बिंगीपुरा कचरा निपटान केंद्रों के आसपास रहने वाले लोग इनका विरोध कर रहे हैं। वेल्लूर में तो सदुप्पेरी के गांव वालों ने तो हथियारों के साथ घेराबंदी कर रखी है। इस सूची में और भी कई नाम हैं। दिल्ली में धसके कचरे के पहाड़ के बाद भोपाल के लोगों को भी सोचना होगा। यह मानना होगा कि जहाँ कचरा घर ले जाया जा रहा है वहां के नगरिकों का असंतोष न केवल विधिसम्मत है बल्कि जरूरी भी है। भोपाल को अभी से कचरा फेंकने के लिए नई जगह तलाशने के बजाय इसे अपने ही घर के पिछवाड़े ठिकाने लगाने के तरीके सीखने चाहिए। इसके लिए कचरा निपटान की पूरी प्रक्रिया अपनानी होगी। गाँधी जयंती आ रही है अभी से कुछ सोचिये और भोपाल शहर से, पडौसी गाँव को कोई सुंदर तोहफा दीजिये। अपने कचरे का निपटान खुद कीजिये।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।