ललित गर्ग। इन दिनों नौकरशाहों की कार्यशैली पर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की टिप्पणियां सामने आ रही है, नौकरशाही पर इस तरह की टिप्पणियां कोई नई बात नहीं है, अधिकांश राजनीतिज्ञ उन पर टिप्पणियां करते आए हैं। प्रश्न राजनेताओं की टिप्पणियों का नहीं है, बल्कि प्रश्न नौकरशाहों के चरित्र का है, प्रश्न नैतिकता का है, प्रश्न सुप्रशासन का है, प्रश्न जबावदेही का है। लेकिन आज जिस तरह से हमारा नौकरशाह का जीवन और सोच विकृत हुए हैं, उनका व्यवहार झूठा हुआ है, उन्होंने चेहरों से ज्यादा नकाबें ओढ़ रखी हैं, उन्होंने हमारे सभी मूल्यों को धराशायी कर दिया। वे देश को लूट रहे हैं, वे आम आदमी को परेशान कर रहे हैं, वे अपने दायित्व एवं जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहे हैं।
कितने ही नौकरशाहों पर छापों के दौरान करोड़ों की नकदी, करोड़ों का सोना, अरबों की बेनामी सम्पत्ति बरामद हुई हैं। यह सब दर्शाता है कि देश में नौकरशाह भ्रष्टाचार का पर्याय बन गया है। यह तभी संभव है जब सत्ता एवं नौकरशाह के बीच कोई गठजोड़ हैं। उनके बढ़े हुए तेवर एवं भ्रष्टाचार केे खुले खेल सत्ता के भ्रष्ट गठजोड़ से ही संभव है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी दल एवं अन्य दल के नेताओं के भ्रष्ट आचरण पर नियंत्रण के लिये कठोर कदम उठा रहे हैं, लेकिन नौकरशाहों पर क्यों नहीं कठोर कार्यवाही की जा रही है?
बात केवल भ्रष्टाचार की ही नहीं है, बात अपनी जिम्मेदारियों एवं दायित्व के प्रति लापरवाह होने की भी है। यह स्थिति देश के लिये ज्यादा खतरनाक है। इसी स्थिति में कभी कोई पुल ढह जाता है तो कभी अनाज गोदामों में सड़ जाता है, कभी कोई कचरा जान का दुश्मन बन जाता है, तो कभी पूरा शहर सड़ने लग जाता है, कभी कर्मचारी मजबूरन आन्दोलन या काम रोकों के लिये विवश होते हैं तो कभी देश की सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है। सवाल है कि स्थिति को इस हद तक बिगड़ने ही क्यों दिया जाता है। नौकरशाह अगर सचमुच समय पर कार्य करें, निर्णय लें या पूर्वाग्रह से ग्रस्त न हो, गलत निर्णय न ले तो स्थितियां इतनी भयावह नहीं हो सकती। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इसी नौकरशाही पर अनेक आरोप जड़े हैं।
उनका मानना है कि दिल्ली में तो विकास सचिवालय में बंधक पड़ा है। यदि नौकरशाही के अड़ंगे ना होते तो हम काफी कुछ कर सकते थे। केजरीवाल का यह भी मानना है कि 90 फीसदी आईएएस अधिकारी काम नहीं करते हैं। संविदा कर्मचारियों को नियमित किए जाने के मसले पर उनका आरोप है कि नियमितीकरण की फाइल आईएएस अफसरों ने दबाकर रख ली है। इधर हुक्मदेव नारायण यादव ऐसे ही आरोप संसद में लगाते हुए कह चुके हैं कि ‘‘मंत्री खड़े रहते हैं, अफसर को बचाते हैं, हम तो अफसर के गुलाम हैं, अफसर खाता है, पचाता है। नौकरशाह लूटता है देश को, गरीबों का खून पीता है नौकरशाह, वह ब्लैक मार्किटिंग कराता है, गोदामों में गेहूं सड़वाता है।’ यादव की कही बातों में कुछ तो सत्यता है।
बिना चिनगारी के आग नहीं लगती। राष्ट्र के करोड़ों निवासी देश के भविष्य को लेकर चिन्ता और ऊहापोह में हैं। वे कुछ नया होते हुए देखना चाहते हैं। वे राष्ट्र को बनते एवं संवरते हुए देखना चाहते हैं, लेकिन विडम्बना है कि जिन पर राष्ट्र को बनाने की जिम्मेदारी है, वे अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे हैं। वक्त आ गया है अब नया भारत बनाने के साथ-साथ देश की संस्कृति, गौरवशाली विरासत को सुरक्षित रखने के लिए कुछ शिखर के व्यक्तियों को भागीरथी प्रयास करना होगा। दिशाशून्य हुए नेतृत्व वर्ग के सामने नया मापदण्ड रखना होगा। नौकरशाह पर नकेल कसनी होगी।
राजस्थान में पुलिस कॉन्स्टेबलों के बीच अचानक भड़के असंतोष का कारण भी नौकरशाह की लापरवाही ही है। वहां सोमवार को 250 कॉन्स्टेबल सामूहिक छुट्टी पर चले गए। इनमें कुछ ऐसे भी थे जिन्हें जोधपुर दौरे पर आए केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह को गार्ड ऑफ ऑनर देने की ड्यूटी पर लगाया गया था। गृहमंत्री को गार्ड ऑफ ऑनर की औपचारिकता तो किसी तरह पूरी कर ली गई, लेकिन कॉन्स्टेबलों का यह सांकेतिक विरोध प्रदर्शन बड़ा मसला बन गया। अब प्रदेश के डीजीपी और जोधपुर के पुलिस कमिश्नर कह रहे हैं कि दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। उनकी अनुशासनहीनता पर कार्रवाही होनी ही चाहिए, लेकिन प्रश्न यह भी है कि वे इस स्थिति के लिये क्यों विवश हुए? कमजोर को दबाना अक्सर अधिकार सम्पन्न लोगों की तानाशाही रही है।
देश का चरित्र बनाना है तथा नये भारत की रचना करनी है तो हमें नौकरशाह को एक ऐसी आचारसंहिता में बांधना होगा जो प्रशासनिक जीवन में पवित्रता दे, तेजस्विता दे, गति दे। राष्ट्रीय प्रेम, स्वस्थ प्रशासन, ईमानदारी को बल दे एवं भ्रष्ट व्यवस्था से मुक्ति के लिये संकल्पित हो। कदाचार एवं भ्रष्टाचार के इस अंधेरे कुएँ से निकाले। बिना इसके देश का विकास और भौतिक उपलब्धियां बेमानी हैं। व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्रीय स्तर पर नौकरशाह के इरादों की शुद्धता महत्व रखती है, जबकि हमने इनका राजनीतिकरण कर परिणाम को महत्व दे दिया।
घटिया उत्पादन के पर्याय के रूप में जाना जाने वाला जापान आज अपनी कार्य एवं जीवनशैली को बदल कर उत्कृष्ट उत्पादन का प्रतीक बन विश्वविख्यात हो गया। यह राष्ट्रीय जीवनशैली की पवित्रता का प्रतीक है और यह बिना नौकरशाह के नैतिक हुए संभव नहीं है। ऐसा नहीं है कि हर नौकरशाह भ्रष्ट है लेकिन ईमानदारों की संख्या बहुत कम है। जो भ्रष्टाचार नहीं करते उन्हें बार-बार तबादलों का शिकार होना पड़ता है या राजनेताओं की प्रताड़नाओं का। ऐसे लोग भी विवश होकर भ्रष्ट हो जाते हैं। ईमानदार एवं नैतिक बनने की तुलना में भ्रष्ट बनने की दर यहां भी बहुत अधिक है।
किसी भी राष्ट्र को निर्मित करने में नौकरशाह की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। संविधान में उनकी भूमिका पूरी तरह स्पष्ट है। उन्हें नियम और कानून के मुताबिक आदेशों का क्रियान्वयन करना होता है। नौकरशाह सरकार तो नहीं होते लेकिन अनेक मौकों पर देखा जाता है कि वे ही सरकार हो गए हैं या सरकार से भी अधिक ताकतवर। यह स्थिति बनना शुभ नहीं है। मंत्रियों एवं आम जनता के बीच वे एक सेतु हैं, सेतु होना अच्छी बात हैं। लेकिन उन्हें एक बड़ी शक्ति के रूप में मान्यता मिलना, उनके अहंकार को तो बढ़ाता ही है, इसी से भ्रष्टाचार भी पनपता है। सरकार का कोई भी आदेश मंत्री की प्रशासनिक मंजूरी के बिना जारी नहीं हो सकता और मंत्री अपने इन आदेशों की प्राथमिक स्थिति से लेकर लागू करने तक की स्थितियों के लिये नौकरशाह पर निर्भर हैं।
देश में नौकरशाहों में विभागीय मंत्री के आदेशों एवं निर्देशों की अवहेलना करने की प्रवृत्ति काफी तेजी से बढ़ी है। लोगों में ऐसी धारणा बन चुकी है कि नौकरशाह कामकाज में अड़ंगा लगाने के लिए ही होते हैं और ऐसा होता भी है। जब से मोदीजी ने राजनीतिज्ञों पर कड़ी नजर रखना शुरू किया है, इन नौकरशाहों कोे मनमानी करने की खुली छूट मिल गयी है। भ्रष्टाचारमुक्त भारत का सपना तभी साकार होगा जब राजनेताओं के साथ-साथ नौकरशाहों पर भी कड़ी निगरानी रखी जाये। यह भी देखने में आ रहा है कि नौकरशाह अपनी ऊर्जा एवं स्वतंत्र सोच से कुछ नया नहीं करना चाहता, उनसे कोई नया होता हुआ काम रूकवाना आसान है, किसी आदेश-निर्देश को रद्द करवाना बहुत सहज होता है, पाबंदी आसान होती है किन्तु सृजन बहुत कठिन होता है।
कार्य करने की शैली कार्य करने से कम महत्वपूर्ण नहीं होती। सुबह से शाम तक अव्यवस्थित दिनचर्या जीवन नहीं है। घड़ी में सभी के लिए 24 घण्टे हैं और कैलेण्डर भी कोई अपने लिए अलग नहीं बना सकता तथा वर्णमाला के अक्षर भी सबके लिए उतने ही हैं। विवेकता है इसके सदुपयोग में। महावीर, बुद्ध के पास भी इतना ही समय था। वर्णमाला के वही अक्षर गाली बन जाते हैं और वही प्रार्थना। नौकरशाहों को अपने समय का उपयोग विवेक से करते हुए नया भारत बनाना है, ईमानदार भारत बनाना है और इसकेे लिये उन्हें संकल्पित होना होगा।
हमारे देश की संरचना में वर्तमान में सर्वाधिक शक्तिशाली एवं समृद्ध कोई वर्ग है तो वह है नौकरशाह। वे अत्यंत समृद्ध जीवनशैली में जीते हैं, ताकतवर होते हैं, नेता आते-जाते रहते हैं, पर सत्ता तो नौकरशाह ही चलाते हैं। उनकी सोच है कि जब तक जीओ सुख से जीओ, भ्रष्टाचार करो और घी पीओ। यही है हमारे नौकरशाह की जीवनशैली का एक सूत्र। इस दृष्टिकोण को बदलना जरूरी है। विश्व बैंक या अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण लेकर राष्ट्रीय विकास एवं उत्पादन वृद्धि की जाए अच्छी बात है लेकिन यहां तो विडम्बना यह है कि विकास के नाम से 15 प्रतिशत राशि ही अन्तिम छोर तक पहुंचती है, शेष किसी न किसी तरीके से बीच में ही नौकरशाह व ठेकेदारों की निजी सम्पत्ति बन जाती है। इसलिये स्वस्थ लोकतंत्र में नौकरशाहों पर लगाम कसना जरूरी है, ताकि विकास की गति फाइलों में न अटके, भ्रष्टाचार को पनपने का भी मौका न मिले और देश बनाने का काम किसी स्वार्थी सोच का शिकार न बने।
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