देश का अर्थ तंत्र और नई मौद्रिक नीति

Bhopal Samachar
राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश का अर्थतंत्र इन दिनों सार्वजनिक विमर्श का विषय बना हुआ है। सरकार के अपने लोगों ने ही जिस तरह इस पर सवाल उठाए हैं, उससे आम लोग भी इकॉनमी की हलचलों को लेकर सचेत हो गए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक को भी इन परिस्थितियों में न केवल विकास दर घटाना पड़ा है वैधानिक तरलता अनुपात [एसएलआर] घटाना पड़ा है। भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी नई मौद्रिक नीति जारी की है। कहने को इस मौद्रिक नीति में कहने को कुछ नया नहीं है, पर इसमें जो बातें कही गई हैं, वे भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा का एक खाका पेश करती हैं। रिजर्व बैंक की मॉनिटरी पॉलिसी कमिटी (एमपीसी) ने ब्याज दरों में कोई भी तब्दीली नहीं की। रेपो रेट 6 प्रतिशत पर बरकरार है, रिवर्स रेपो रेट 5.75 प्रतिशत पर, जबकि सीआरआर 4  प्रतिशत पर कायम है। हालांकि, एसएलआर (वैधानिक तरलता अनुपात) आधा फीसदी घटा दिया गया है। एसएलआर वह अनुपात है, जिसके आधार पर कमर्शल बैंकों को हर दिन अपनी कुल अदायगी का एक निश्चित हिस्सा सोने या सरकारी प्रतिभूतियों की शक्ल में अपने पास सुरक्षित रखना होता है। 

बैंकों की परिभाषा में बैंकों के लिए इसकी भूमिका उनकी वित्तीय स्थिरता की गारंटी जैसी होती है। अप्रैल 2010 के 25 प्रतिशत से घटते-घटते यह अनुपात अभी 19.5 प्रतिशत तक पहुंचा है। बैंकों के पास कर्ज देने के लिए रकम की कोई किल्लत नहीं है, एसएलआर घटाकर उन्हें थोड़ा और हाथ खोलने का मौका दिया गया है। नई नीति की खास बात यह है कि रिजर्व बैंक ने इस वित्त वर्ष के लिए अर्थव्यवस्था की विकास दर का अनुमान 7.3 फीसदी से घटाकर 6.7 फीसदी कर दिया है।

नई मौद्रिक नीति लाने से पहले सरकार और कुछ उद्योग मंडल चाहते थे कि ब्याज दरें कम हों, लेकिन रिजर्व बैंक फूंक-फूंककर कदम रखना चाहता है। कहीं सूखा कहीं बाढ़ की स्थितियों से एक तरफ खाद्य पदार्थों की महंगाई बढ़ने की आशंका है, दूसरी तरफ कच्चे तेल की कीमतों में इजाफे के आसार हैं। आरबीआई को लगता है कि आने वाले दिनों में महंगाई अपने मौजूदा स्तर से और बढ़ेगी। उसका यह भी मानना है कि किसानों की कर्जमाफी से राजकोषीय घाटे पर असर पड़ेगा, जबकि केंद्र सरकार ने अपने कर्मचारियों को जो एचआरए दिया है, उससे घरेलू खपत में बढ़ोतरी होगी और इकॉनमी की रफ्तार सुधरेगी। मौद्रिक समिति की साझा राय है कि जीएसटी के लागू होने का अर्थव्यवस्था पर तात्कालिक तौर पर नकारात्मक असर पड़ा है और खासकर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के लिए कठिनाई पैदा हुई हैं। देश में निवेश की गतिविधियों पर भी इसका कुछ असर पड़ेगा, जो पहले से ही दबाव में हैं। हालांकि आरबीआई की राय है कि वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में यह असर कम होगा। सरकारी खर्चों के मामले में आरबीआई का संदेश इस वित्त वर्ष के बचे हुए पांच-छह महीनों में फूंक-फूंक कर कदम रखने का ही है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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