राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश के पिछले अनुभव बताते है कि सरकार की राजनीतिक बाध्यताएं इतनी बड़ी होती हैं कि वे सरकारी संस्थाओं की तर्कसंगत आर्थिक सलाह को नजरअंदाज कर जाती हैं। इस तरह चुनाव करीब होने पर अच्छी-भली आर्थिक नीतियों से संबंधित सुझावों को भी अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है। आर्थिक नीतियों को राजनीतिक रूप से लाभदायक बनाने के लिए उन्हें तोड़ा-मरोड़ा भी जाता है। यह अलग बात है कि मनचाहे नतीजे हासिल करने के लिए ऐसा करना आर्थिक रूप से गलत होता है।
आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन इस समय होने की शायद यह वजह है कि सरकार को लगातार आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। विकास की रफ्तार धीमी हुई है, कच्चे तेल की कीमतें स्थिर बनी रहने पर मुद्रास्फीति सहज दायरे को पार कर सकती है, राजस्व में कमी आने की आशंका और निवेश प्रोत्साहन पैकेज की मांग आने से चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को लक्षित दायरे के भीतर रखना भी चुनौतीपूर्ण लग रहा है, निर्यात अभी तक तेजी नहीं पकड़ पाया है, चालू खाते का घाटा बढ़ चुका है और धन की आसान उपलब्धता के मामले में वैश्विक परिवेश में बदलाव होने से भारतीय रुपये पर दबाव देखने को मिल सकता है। उम्मीद यही है कि परिषद का गठन इन्हीं मुद्दों पर ध्यान देने के लिए किया गया है।
इस लिहाज से सरकार का इस सलाहकार परिषद को स्वतंत्र दर्जा देने का बयान आश्वस्त करता है। आर्थिक घटनाओं का स्वतंत्र आकलन और उसके लिए जरूरी नीतिगत कदमों के बारे में स्वतंत्र परामर्श देना इस परिषद की प्रभावकारिता और विश्वसनीयता तय करने में प्रमुख कारक होगा। इसे असरदार बनाने में इस पहलू का भी खासा योगदान होगा कि प्रधानमंत्री का इस परिषद के अध्यक्ष और उसके सदस्यों के प्रति कितना भरोसा बना रहता है।
पिछली सरकारों के दौरान गठित सलाहकार परिषदें असरदार और भरोसेमंद तरीके से काम कर पाई थीं तो इसकी वजह यह थी कि परिषद के अध्यक्ष रहे सुखमय चक्रवर्ती, सुरेश तेंडुलकर या सी रंगराजन सभी को तत्कालीन प्रधानमंत्रियों से पूरी स्वतंत्रता मिली थी और उन्हें उनका भरोसा भी हासिल था। मोदी सरकार को यह समझना होगा कि आर्थिक सलाहकार परिषद जैसी संस्था का गठन कर देना ही काफी नहीं है, इससे भी अधिक अहम यह है कि उसे काम करने की आजादी मिले और उसके सुझावों पर ध्यान दिया जाए।
वित्त मंत्रालय के लिए इसके क्या मायने हैं? अभी तक आर्थिक मामलों में प्रधानमंत्री पूरी तरह से वित्त मंत्रालय पर निर्भर रहे हैं। लेकिन परिषद के वजूद में आने के बाद इस निर्भरता में गुणात्मक बदलाव आएंगे। वित्त मंत्रालय के भीतर सलाह की गहराई को देखते हुए प्रधानमंत्री आगे भी नॉर्थ ब्लॉक से जानकारियां लेते रहेंगे। लेकिन परिषद के रूप में अब उनके पास सलाह लेने का एक नया जरिया होगा और सरकारी व्यवस्था के भीतर दूसरी राय लेने का एक अवसर भी मिलेगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।