राकेश दुबे@प्रतिदिन। हर प्रधानमन्त्री की तरह ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार के आर्थिक प्रबंधन का पूरी तरह बचाव किया है। प्रधानमंत्री ने कहा कि राजकोषीय घाटा, चालू खाते का घाटा और मुद्रास्फीति तीनों कम हैं। यह बात सही है और यह अच्छी बात है। उन्होंने नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) दोनों का बचाव किया। । उन्होंने आंकड़ों की मदद से यह जताने की कोशिश की कि अर्थव्यवस्था में कोई गड़बड़ी नहीं है। उन्होंने यह भी सच ही कहा कि एक तिमाही के कमजोर नतीजे मंदी के परिचायक नहीं होते।परंतु उन्होंने बिक्री में बढ़ोतरी और औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि के बीच कोई भेद नहीं किया। क्योंकि बिक्री में बढ़ोतरी तो जीएसटी के लागू होने के बाद स्टॉक निपटाने की जल्दबाजी की वजह से भी हो सकती है। उन्हें अपनी नई नवेली आर्थिक सलाहकार परिषद से यह पूछना चाहिए कि दरअसल अर्थव्यवस्था किन हालात से गुजर रही है।
नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में किए गए सुधारों का भी जिक्र किया। यह बात भी सच है कि उनकी सरकार ने तमाम क्षेत्रों में सुधार किए हैं। बैंकों द्वारा ज्यादा मात्रा में ऋण न देने के सवाल पर उन्होंने कहा कि कंपनियां अन्य स्रोतों से धन जुटा रही हैं, परंतु उन्होंने हमें यह नहीं बताया कि उनकी सरकार बैंकों की अंतर्निहित समस्या से निपटने के लिए क्या करेगी?
प्रधानमन्त्री मोदी कार्यकाल के तीसरे साल या मध्यावधि की उस समस्या में उलझ गए हैं जिसका सामना कमोबेश हर सरकार को करना होता है। केवल अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह का पहला कार्यकाल ही इसका अपवाद रहा है। जवाहरलाल नेहरु सन 1955 में इस संकट के शिकार हुए। उस वक्त कांग्रेस पर यह दबाव था कि अर्थव्यवस्था ठीक ढंग से विकसित नहीं हो रही है। उस वक्त उन्होंने समाजवादी रुख अपनाया। सन 1960 में एक बार फिर वह इस संकट के शिकार हुए। उस वक्त वह दूसरी पंचवर्षीय योजना में एक अत्यंत महत्त्वाकांक्षी निवेश योजना लेकर आए। परंतु घरेलू और विदेशी दोनों ही संसाधनों के मोर्चे पर दिक्कत का सामना करना पड़ा। राजीव गांधी सन 1987 में इस समस्या के शिकार हुए। सूखे और उच्च मुद्रास्फीति के कारण अर्थव्यवस्था की हालत एकदम खस्ता हो गई थी। पीवी नरसिंह राव इस संकट से बच निकलने में कामयाब रहे लेकिन सन 1991 में उनके कार्यकाल की शुरुआत ही एक बड़े संकट से हुई थी। सन 1993 में वह एक बड़े राजनीतिक संकट के शिकार हुए जबकि सन 1994 में हर्षद मेहता कांड ने उनको दिक्कत में डाला। वाजपेयी के कार्यकाल की शुरुआत सन 1998 में हुई। उस वक्त भी हालात ठीक नहीं थे। यही वजह थी कि करगिल जंग के बावजूद आगे हालात बेहतर ही हुए। इस दृष्टि से उनका प्रदर्शन काफी हद तक नरसिंह राव की तरह रहा। मनमोहन सिंह भी अपने पहले कार्यकाल में इस संकट से बच निकलने में कामयाब रहे लेकिन दूसरे कार्यकाल में वह इससे बच नहीं सके। सन 2012 में अर्थव्यवस्था सही मायनों में गहरे संकट की शिकार हो गई थी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।