
यह मामला कुछ इस प्रकार था। इस मामले में पति और पत्नी के संबंध पहले से खराब चल रहे थे। तलाक की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। लोक अदालत के प्रयास पर दोनों ने दोबारा साथ रहना शुरू किया। कुछ समय बाद पत्नी को गर्भ ठहरने का पता चला, पर दोनों के बीच अच्छे संबंध की गुंजाइश न देखते हुए उसने गर्भपात का फैसला किया। पति ने मंजूरी देने से इनकार कर दिया, जिसके बाद पत्नी ने उसकी मर्जी के बगैर ही अबॉर्शन करा लिया। पत्नी के इस फैसले से नाराज पति ने पत्नी, साले और ससुर सहित हॉस्पिटल के डॉक्टर्स पर 30 लाख रुपये का दावा ठोक दिया। उसका दावा था कि पत्नी के इस काम से उसे अत्यधिक मानसिक पीड़ा हुई है।
हाईकोर्ट ने पीड़ा के उसके तर्क को खारिज करते हुए कहा कि पत्नी ने वैवाहिक सेक्स के लिए सहमति दी तो इसका मतलब यह नहीं हो जाता कि उसने गर्भधारण के लिए भी सहमति दी है। यह उसकी मर्जी पर निर्भर करता है कि वह बच्चे को जन्म दे या न दे। पति उसे इसके लिए मजबूर नहीं कर सकता। हाईकोर्ट के इस स्पष्ट रुख को और मजबूती देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कह दिया कि मानसिक रूप से कमजोर महिला को भी अबॉर्शन कराने का पूरा अधिकार होता है।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पति को परिवार का पालनकर्ता मानने की परंपरा है। जिसने पत्नी को अनेकानेक सहज मानवीय अधिकारों से भी वंचित कर रखा है। ऐसे फैसले न केवल इस पारंपरिक नजरिए में बदलाव और समाज में नये दृष्टिकोण की जरूरत बताते हैं और ऐसे फैसले कानून की शक्ति से उसके अमल को भी कारगर बनाते हैं। सामाजिक परिवेश में आ रहे बदलाव में इस फैसले परिणाम सुखद भी हो सकते हैं और विपरीत भी। सम्पूर्ण सामजिक तानेबाने और रिश्तों के नये परिवेश पर इए दृष्टि से भी विचार जरूरी है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।