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BANK द्वारा ग्राहकों के साथ हो रही चालबाजियां

राकेश दुबे@प्रतिदिन। “उपभोक्ताओं से जुड़े मुद्दे बैकिंग प्राथमिकता में सबसे निचले पायदान पर आते  हैं”। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी अपने भाषणों में उपभोक्ता हित को लेकर यह टिप्पणी की है। आरबीआई की यह रिपोर्ट सीमांत निधि लागत पर आधारित उधार दर (एमसीएलआर) के कामकाज की समीक्षा की है। यह रिपोर्ट आरबीआई की वेबसाइट पर मौजूद है। सर्व ज्ञात तथ्य है जब ब्याज दरें बढ़ती हैं तो बैंक झटपट अपनी दरें बढ़ा देते हैं लेकिन जब दरों में कमी आती है तो बैंक ज्यादा से ज्यादा फायदा अपने पास रखने की कोशिश करते हैं।

जुलाई 2010 से मार्च 2012 के कड़ाई के चरण के दौरान रीपो दर से बकाया ऋण का स्तर 60  प्रतिशत रहा जबकि अप्रैल 2012 से जून 2013 के सहज स्तर के दौरान यह 40 प्रतिशत था। इसका मतलब यह हुआ कि सहजता के दिनों में ग्राहकों को 60 प्रतिशत का चूना लगाया गया। यह राशि नकदी में हजारों करोड़ रुपये की होगी। चकित करने वाली बात है कि रिपोर्ट में कहा गया है, 'निजी क्षेत्र के बैंकों के मामले में कम एमसीएलआर दर को वास्तविक ऋण दर में पारेषित होने में छह महीने का वक्त लग गया। जबकि सरकारी बैंकों के मामले में यह काम छह महीने बाद भी पूरा नहीं हुआ था।'आरबीआई की रिपोर्ट में इस बारे में कहा गया है कि बैंक विशिष्ट तरीके का इस्तेमाल करते हुए आधार दर और एमसीएलआर का आकलन करने के बजाय तदर्थ तरीके से काम करते हैं। इससे या तो आधार दर बढ़ जाती है या फिर आधार दर निधि की लागत के अनुरूप नहीं रह जाती। 

आरबीआई के अपने अध्ययन यह भी विचार किया है कि यहां आरबीआई की भूमिका क्या है? आरबीआई ने हमेशा उपभोक्ताओं के खिलाफ जाने वाले बैंकिंग व्यवहार की अनदेखी की? यह सच है कि सन 1999 के बाद से आरबीआई ने शनै: शनै: देश के बैंकों को उपभोक्ताओं के साथ मनमाना व्यवहार करने की इजाजत दी है। रिपोर्ट में आगे लिखा कि विभिन्न बैंकों की दरों में अंतर को समझ पाना मुश्किल है। खासतौर पर यह देखते हुए कि बैंकिंग स्तर पर कारोबारी नीतियां समान हैं और ग्राहक ऋण के स्तर पर जोखिम भी। विश्लेषण में कहा गया है कि ये बैंक समान ग्राहकों से अलग-अलग दर वसूल करते हैं। जबकि एमसीएलआर की बैंकों द्वारा निर्धारित दर में बहुत मामूली भूमिका होनी थी लेकिन यही मुख्य निर्धारक बन गई। इस प्रकार बैंकों द्वारा ऋण दर तय करने की पूरी प्रक्रिया अस्पष्ट बन गई।  

रिपोर्ट में कहा गया है, 'कई बैंक एमसीएलआर पर मनमानी वसूली करते नजर आते हैं। प्रमुख बातें इस प्रकार हैं: 
(1) कई बैंकों ने एमसीएलआर में भारी कमी को आंशिक तौर पर दूर करने के लिए साथ ही साथ कारोबारी नीति प्रीमियम में इजाफा किया। इससे ऋण दर तक इसका पारेषण पूरी तरह नहीं हुआ। 
(2) कारोबारी नीति प्रीमियम तय करने के पीछे के तर्क का कोई दस्तावेजीकरण नहीं 
(3) कई बैंकों में ग्राहकों से शुल्क वसूली संबंधी फैसलों पर बोर्ड की मंजूरी की नीति ही नहीं है। (4) कुछ बैंकों के पास इस विस्तार के आकलन तक का सही तरीका नहीं है।रिपोर्ट को अगर सपाट ढंग से पढ़ा जाए तो यह साबित होता है कि बैंक अपने ग्राहकों के साथ धोखेबाजी कर रहे हैं। वे अनावश्यक रूप से ऊंची दरें वसूल कर रहे हैं, भेदभाव कर रहे हैं और अस्पष्टता बरत रहे हैं। इस बीच आरबीआई भी इस ओर कतई ध्यान नहीं दे रहा है। जो उसे देना चाहिए। 
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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