राकेश दुबे@प्रतिदिन। डिजिटल अंधानुकरण भारत में सच्चाई बनती जा रही है। चुनाव जीतने के हथकंडे के रूप में शुरू हुआ यह अन्धानुकरण अब नुकसान पहुँचाने की कगार पर पहुंच गया है। इस काल के पूर्व ‘फेक न्यूज’ प्रिंट माध्यम में भी रही है, पर इसकी पहुंच अपेक्षाकृत काफी सीमित थी। इंटरनेट के आगमन ने न सिर्फ भौगोलिक इतिहास बदल गया, बल्कि इसने हर यूजर को वैश्विक लेखक, वैश्विक प्रसारक और वैश्विक प्रेषक बना दिया है। अब तो सोशल मीडिया के माध्यम किसी को कुछ भी कहने की आज़ादी है, यह माध्यम अपने विचारों को तुरंत प्रकाशित और प्रसारित करने की आजादी देता है। सूचनाओं की प्रामाणिकता, सच्चाई व विश्वसनीयता को जांचे बिना दूसरे लोगों के साथ उसे साझा करने, फॉरवर्ड करने और फिर से पोस्ट करने की इस प्रवृत्ति ने फर्जी खबरों में अच्छी-खासी तेजी ला दी है। जिसका सबसे ज्यादा लाभ राजनीति उठा रही है।
फर्जी खबरों के खिलाफ अभियान भी चले है, मगर ऐसे प्रयासों का अब तक सार्थक नतीजा नहीं निकल सका है। भारत में फर्जी खबरों से निपटना अब टेढ़ी खीर दिखता है, क्योंकि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 में ऐसी किसी स्थिति का जिक्र ही नहीं है। जिसका गलत लाभ “फेक न्यूज” या “फेंकू न्यूज” भेजने वाले उठा रहे हैं। यह वही अधिनियम है, जिसे भारत में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के डाटा और सूचनाओं से निपटने का ‘मूल कानून’ माना जाता है।
यह एक खास तरह का कानून है और इसके प्रावधान मौजूदा समय में लागू इस विषय से संबंधित अन्य कानूनों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। अब तक इस कानून में सिर्फ एक बार 2008 में इसमें संशोधन किया गया है, पर ‘फेक न्यूज’ से निपटने का कोई प्रत्यक्ष प्रावधान इसमें दर्ज नहीं किया जा सका।
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, से भारतीय दंड संहिता 1860 में भी बदलाव किया गया था और उसमें धारा 468 और 469 के तहत इलेक्ट्रॉनिक सूचनाओं की जालसाजी जैसे नए अपराध शामिल किए गए थे। लिहाजा फेक न्यूज को भारतीय दंड संहिता 1860 के तहत अपराध के दायरे में लाया जा सकता है, क्योंकि जब कोई फर्जी खबर गढ़ता है, तो वह एक फर्जी इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज भी है, और वह दस्तावेज एक ऐसा फर्जी ‘कंटेट’ होता है, जिसे आमतौर पर सच या प्रामाणिक सूचना के तौर पर पेश किया जाता है।
सवाल यह है कि फर्जी खबरों के प्रसार का दोषी किसे माना जाए? क्या उस शख्स को, जिसने उसे गढ़ा या उस व्यक्ति को, जिसने उसे प्रसारित किया? क्या जिम्मेदारी सेवा देने वाली कंपनी की मानी जाएगी या सोशल मीडिया का मंच भी जवाबदेह होगा? कानून इन सवालों को लेकर मौन है।
भारत में कुछ मापदंड 2011 में बनाए गए थे, जो बदलते वक्त के साथ अप्रासंगिक हो गए हैं। इसके अलावा, मुश्किल यह भी है कि फर्जी खबरों के जुड़े प्रावधान सीधे तौर पर ऐसे किसी मापदंड में शामिल नहीं किए गए हैं। अगर भारत फर्जी खबरों के खिलाफ जंग जीतना चाहता है, तो उसे अपने नजरिये में बदलाव लाना होगा। फर्जी खबरों में यह ताकत होती है कि वे लोगों के सम्मान, नजरिये और प्रतिष्ठा को मटियामेट कर देते हैं। इतना ही नहीं, इसका इस्तेमाल साइबर मानहानि के एक औजार के रूप में होता है और ऐसी खबरें प्रसारित करके संबंधित व्यक्ति को खूब प्रताड़ित किया जाता है। साफ है, इसे रोकने के लिए हमारे नीति-नियंताओं को खासा सक्रिय होना होगा। “फेक न्यूज” और “फेंकू न्यूज” से सबसे ज्यादा लाभ वे ही तो उठाते हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।