
वे अनुमान तथ्यों के साथ सम्वाददाता की मेहनत का घालमेल होता है यह इससे विश्वसनीयता का सवाल खड़ा होना लाजिमी है। अत्यधिक विभक्त हो चुके मीडिया संस्थानों की प्रकृति ही ऐसी हो चुकी है जबकि कुछ टीवी चैनल और वेबसाइट ही इन मसलों पर परवाह नहीं करते हैं। पिछले अनुभव है एक के बाद एक राज्य के चुनावों में मीडिया लगातार मोदी को जनता के हाथों फटकार लगने की भविष्यवाणी करता रहा है लेकिन निरपवाद रूप से हकीकत इसके उलट ही रही है। गुजरात चुनाव के नतीजे आने अभी बाकी हैं लेकिन भाजपा की जीत की संभावना अधिक दिख रही है क्योंकि चुनाव के पहले हुए सभी ओपिनियन पोल और मतदान के तत्काल बाद जारी एग्जिट पोल में ऐसे ही स्वर ध्वनित हुए हैं। क्या किसी चैनल या वेबसाइट ने मतदान के पहले आपको यह बताया था? गुजरात चुनाव में भाजपा को पिछले पांव पर धकेलने वाली कई चीजें थीं। उसके मुख्यमंत्रियों का ढीला प्रदर्शन, नोटबंदी से नुकसान, किसानों की समस्याएं, जीएसटी लागू होने से पैदा हुआ कारोबारी गतिरोध और जातिगत आंदोलन भाजपा को मुश्किल में डाल सकते थे। अभी तक मीडिया के अनुमान इससे से इतर हैं।
इस बार चुनावी भाषणों में भी हल्की बातें कही जाने से यह धारणा जोर पकडऩे लगी कि कोई पार्टी कमजोर पडऩे लगी है। प्रश्न यह है ऐसी परिस्थिति उभरे में किसी परिदृश्य को उभारने के लिए एक्जिट पोल द्वारा तथ्यों का चयन क्या प्रदर्शित करता है? मीडिया के लिए भी एक लोकतंत्र में अपनी जगह है क्योंकि यहाँ यह प्रेस की स्वतंत्रता जुड़ता है। यह आकलन कई बार प्रेस की विश्वसनीयता पर भी संदेह पैदा कर देते हैं। दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल सरकार के नतीजे और पूर्वानुमान एक दूसरे से उलट थे। आम भाषा में ये अंदाज़ है, और अंदाज़ लगाना कोई अपराध नहीं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।