
श्रीमती सोनिया गाँधी के संसदीय प्रबंधन सीखने के ये दिन थे। उन्होंने विभिन्न सहयोगियों की क्षमताओं का आकलन किया। लोकसभा में शिवराज पाटिल उनके सहयोगी थे और संसदीय कार्यों में उनकी मदद करते थे। जब कांग्रेस की सरकार बनी तो पाटिल को गृहमंत्री बनाया गया। यह सोनिया के भरोसे के कारण ही हो सका। धीरे-धीरे सोनिया में मजबूती आई और उन्हें राज्यों में जीत मिलनी शुरू हो गई। केंद्र में भाजपा-नीत गठबंधन सरकार के दौर में भी कई राज्यों में कांग्रेस का शासन था। वर्ष 2004 के आम चुनाव में वामदलों के सहयोग के साथ मिली गठबंधन जीत उनके करियर के उत्थान का पल था। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के गठन ने दिखाया कि सोनिया एक राजनेता के तौर पर परिपक्व हुई थी।
इसी दौरान उन्हें समझ आया कि सबसे बड़े विपक्षी दल की नेता के रूप में उनको कांग्रेस तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि एक व्यापक धर्मनिरपेक्ष ताकत तैयार करनी चाहिए। उन्होंने लालू प्रसाद से लेकर रामविलास पासवान, शरद पवार जैसे कई समान विचार वाले दलों के नेताओं को साधा और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार के साथ भी भरोसे का नाता कायम कर लिया। पवार ने तो सोनिया के विदेशी मूल के होने के आधार पर ही कांग्रेस से बगावत की थी।
संप्रग को मिली चुनावी जीत के बाद हर कोई यही मानकर चल रहा था कि वह प्रधानमंत्री बनने जा रही हैं लेकिन उन्होंने अपनी पार्टी को अचंभित कर दिया और मनमोहन सिंह का नाम आगे बढ़ा दिया। अब राहुल गाँधी से इस प्रकार के निर्णय की आशा होना स्वाभाविक है। विरासत में मिले सिंहासन पर बैठने वाला राजा जरुर कहलाता है पर उसे अपने पद की गरिमा को साबित करना होता है, बहुत कुछ सीखना होता सबक लेने होते हैं,सबक देने होते हैं। राहुल गाँधी सफल हो, यह शुभकामना, पर इस शुभकामना को परिणाम में बदलने के लिए उन्हें सजग रहते हुए मेहनत करना होगी। कांग्रेस में बहुत से बडबोले है, जिनके साथ उन्हें यथायोग्य करना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।