राकेश दुबे@प्रतिदिन। दो केन्द्रीय मंत्रियों के सार्वजनिक बयान चर्चा में हैं। ये बयान भाजपा और मोदी सरकार की जो तस्वीर पेश करते हैं वह भाजपा के मूल चरित्र से मेल नहीं खाती क्योंकि यह चुनावी सभा के भाषण नहीं हैं। इस दो मंत्रियों के बयानों से यह सवाल एक बार फिर से उठ खड़ा हुआ है कि भाजपा में वर्ग समन्वय का सिद्धांत अभी शेष है ? भाजपा के नीतिकारों को सोचना होगा।
पहला- केंद्रीय कौशल विकास राज्यमंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने कर्नाटक में ब्राह्मण युवा परिषद और महिलाओं के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा, “जो लोग धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील होने का दावा करते हैं, उन्हें अपने मां-बाप और उनके खून के बारे में ही जानकारी नहीं होती। मुझे बहुत खुशी होगी अगर कोई व्यक्ति खुद की पहचान मुस्लिम, ईसाई, ब्राह्मण, लिंगायत या हिंदू के तौर पर करता है। इस तरह की पहचान से आत्मसम्मान हासिल होता है। समस्या तब पैदा होती है जब कोई खुद को धर्मनिरपेक्ष कहता है। ऐसे लोगों को मालूम होना चाहिए कि हम जल्द ही संविधान बदलने वाले हैं।“ दूसरा -केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने छुट्टी पर गए डॉक्टरों को धमकाया कि “वे नक्सलियों से जुड़ जाएं, हम उन्हें गोली मारेंगे|”
गौर तलब बात यह है कि ऐसे बयान पहली बार नहीं आए हैं। जब से केंद्र में बीजेपी सरकार सत्तारूढ़ हुई है, उसके मंत्री, जनप्रतिनिधि और नेता समय-समय पर अजीबोगरीब बातें करते रहे हैं। कोई देश की राजनीतिक व्यवस्था के बारे में, संविधान के बारे में कुछ भी बोल देता है तो कोई समाज के कुछ तबकों को धमका देता है। ऐसा लगता है जैसे देश में में प्रजातंत्र का लोप हो गया हो और भाजपा यहां जीवनभर शासन चलाने का जनादेश मिल चुका हो।
दुखद है यह सब और यह बात तो और कष्टकारक है कि इनकी अनर्गल बयानबाजी को कोई नियंत्रित करने वाला भी नहीं है। कुछ समय पहले जब ऐसे कुछ बयानों की निंदा हुई तो एकाध बार प्रधानमंत्री ने घुमा-फिराकर इसकी आलोचना की लेकिन इसके बाद वह प्राय: चुप ही हैं। ऐसे बयानों से कई तरह का भ्रम फैलता है। जैसे, अनंत कुमार हेगड़े के बयान से यह सवाल उठता है कि यह सरकार क्या वाकई संविधान बदलने वाली है? अपने अजेंडे के रूप में तो आज तक उसने कभी इसकी चर्चा नहीं की। तो क्या गुपचुप ढंग से कोई तैयारी चल रही है? अगर नहीं तो क्या संविधान कोई मजाकिया चीज है कि कोई जब चाहे उसके बारे में कुछ भी कह दे? भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को ही नहीं उन जमीनी कार्यकर्ताओं को भी विचार करना चाहिए जिनको वर्ग समन्वय का पाठ सिखाया जाता है। मंत्रियों के आचरण उस पाठ के विपरीत हैं और प्रजातंत्र के लिए तो बेहद घातक। यह अहं की भाषा है, सबको इससे बचना चाहिए। पहले कभी कोई नेता संविधान या व्यवस्था को लेकर जरा भी हल्की बात कह देता तो लोग उस पर आपत्ति करते थे लेकिन अभी लोग भी चुप हैं। यह मौखिक अराजकता को लेकर दिख रही चुप्पी गैर-जिम्मेदार लोगों का हौसला बढ़ा रही है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।