राकेश दुबे@प्रतिदिन। कल 2017 चला जायेगा। इतिहास में वर्ष 2017 का जब भी भारत के सन्दर्भ में उल्लेख होगा, इसे चुनाव और राजनीतिक दलों को मजबूत करने वाले साल और कटु बोलवचन के साल के रूप में गिना जायेगा। भारत के राजनीतिक दलों के मजबूत होने का वर्ष माना जाएगा, खासकर कांग्रेस और सत्तारूढ़ भाजपा दोनों के लिए। दो शीर्षस्थ पदों में सफलता हासिल करने के साथ आज भाजपा देश के 29 राज्यों में से 19 राज्यों में शासन कर रही है। तो कांग्रेस ने अकाली दल और भाजपा के गठ्बन्धन से पंजाब छीना है। राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति दोनों पद उम्मीद के मुताबिक भाजपा के खाते में गए।
कैप्टन अर्मंरदर सिंह ने कांग्रेस नेतृत्व को खुश होने का मौका जरूर दिया। हालांकि एक समय वह भी नाराज चल रहे थे और पार्टी छोड़ने तक की सोच रहे थे। इसके अलावा, जिस चुनाव में कांग्रेस ने प्रभावशाली जीत दर्ज की, वह था पार्टी अध्यक्ष का चुनाव! कांग्रेस के लिए यह संभवत: सबसे आसान चुनाव था, क्योंकि इसमें कोई विपक्ष नहीं था, न कोई चौंकाने वाला उम्मीदवार, न ईवीएम और न ही मोदी-अमित शाह की रणनीति का कोई डर। कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर राहुल गांधी की जीत तो पहले से ही तय थी। वैसे, यह कहा जा सकता है कि इस साल राहुल गांधी ने पार्टी के भीतर अपनी स्थिति मजबूत बनाई है। यह अलग बात है कि कांग्रेस में ऐसे कई वरिष्ठ व दिग्गज नेता हैं, जो बिल्कुल लोकतांत्रिक तरीके से पार्टी चलाने में सक्षम हैं, लेकिन नेहरू-गांधी परिवार के आसपास के लोगों ने ऐसे नेताओं को कभी उभरने नहीं दिया, और आगे भी उन्हें मौका नहीं मिलने वाला है।
इस साल विधानसभा चुनाव अहम पड़ाव साबित हुए। पंजाब, गोवा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में मतदान हुआ। छह राज्यों में भाजपा की सरकारें बनी और देश के 29 में से 19 राज्यों में अपनी सरकार बनाकर उसने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली है। भाजपा के लिए वर्ष की शुरुआत से ही जीत का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह साल के आखिरी महीने के तीसरे सप्ताह तक जारी रहा। कांग्रेस को चुनावों में मजबूत राजनीतिक जीत की दरकार रही। गोवा अथवा मणिपुर उसके लिए आसान था। मगर गोवा में अच्छी-खासी जीत हासिल करने के बाद भी पार्टी नेतृत्व ने सरकार बनाने को लेकर उदासीनता दिखाई। जिससे गोवा में बाज़ी पलट गई।
राहुल गांधी की किस्मत थी कि गुजरात में जातिवादी आंदोलन उभर आए और वहां के नाराज कारोबारी भी जीएसटी को लेकर भाजपा के बढ़ते कदम रोकने को उन्मुख हो गए। यदि केंद्र सरकार जीएसटी सितंबर में लागू करती, तो भाजपा कहीं ज्यादा बड़ी चुनौतियों का सामना करना होता। गुजरात में कांग्रेस चुनाव भले हार गई और सत्ता पाने में सफल न हो सकी, मगर सीटों के लिहाज से उसने भाजपा को नुकसान पहुंचाया। लिहाजा कहा जा सकता है कि गुजरात एक और ऐसा राज्य रहा, जहां इस साल कांग्रेस अपनी स्थिति मजबूत बनाती और वापसी करती हुई दिखी, कम से कम धारणाओं में सही।
बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रणनीतिक रूप से राजनीतिक वापसी की और अपने कंधे से राजद का भार उतार अप्रत्याशित फैसला लेते हुए बिहार के मुखिया ने राजद-कांग्रेस-यूपीए का साथ छोड़ दिया और भाजपा-एनडीए की दोस्ती कुबूल की। इस साल एक दिलचस्प घटनाक्रम तमिलनाडु में भी दिखा। सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के गुट किसी तरह मुश्किलों से पार पाने में सफल रहे तो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की विश्वस्त सहयोगी शशिकला को जेल जरुर भेज दिया मगर विरासत का मसला वहां अब भी अनसुलझा है। शशिकला के भतीजे टीटीवी दिनाकरन आरके नगर विधानसभा क्षेत्र का उपचुनाव जीतकर विरासत के मजबूत दावेदार बनकर उभरे हैं। कुल मिलाकर, यह वर्ष कई राजनीतिक दलों और शख्सियतों को मजबूत करने वाला रहा तो उन जुमलों का भी साक्षी बना जो प्रजातंत्र में ठीक नहीं कहे जा सकते। आने वाला वर्ष कुछ और राज्यों के चुनाव लेकर आ रहा है। नये साल में हो रहे चुनावों में कटु वचनों का इस्तेमाल नहीं होगा, इसकी आशा देश को है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।