राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत सरकार भले ही कितने दावे स्वास्थ्य और दवाओं के बारे में करे, देश में 10 प्रतिशत से अधिक दवा या तो नकली होती हैं या घटिया गुणवत्ता की। यह तथ्य विश्व स्वास्थ्य संगठन की हाल ही में जारी रिपोर्ट में सामने आया है। इस रिपोर्ट ने गरीब और विकासशील देशों की एक अत्यंत गंभीर समस्या की ओर इशारा किया है। इन देशों में भारत भी शामिल है। भारत में फर्जी या घटिया गुणवत्ता वाली दवाओं की शिकायत को अमूमन नजरअंदाज ही कर दिया जाता रहा है।
विश्व स्वास्थ्य सन्गठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत जैसे विकासशील देशों में करीब 10 प्रतिशत दवाएं घटिया क्वॉलिटी की या नकली होती हैं। रिपोर्ट में 2013 से 2017 अगस्त तक मिली शिकायतों के आधार पर यह पता करने की कोशिश की गई है कि किन इलाकों और देशों में यह समस्या कितनी गंभीर है यानी यह खतरा बना हुआ है कि जिन इलाकों में ये गड़बड़ियां पकड़ी नहीं गई हैं या किन्हीं वजहों से शिकायतें दर्ज नहीं कराई जा सकी हैं, उन्हें इस रिपोर्ट में समस्यामुक्त मान लिया गया है।
रिपोर्ट में इस एक उपर्युक्त तथ्य को छोड़ दें तो रिपोर्ट प्रभावी ढंग से स्पष्ट करती है कि फर्जी और घटिया दवाओं की समस्या दुनिया के लिए कितनी गंभीर है। आम तौर पर इसकी मार आबादी के सबसे गरीब और कमजोर हिस्से को ही झेलनी पड़ती है। डॉक्टर अलग-अलग तरह के इलाज आजमाते रहते हैं, जबकि जरूरत उन्हीं दवाओं की पर्याप्त डोज सुनिश्चित करने की होती है। मरीज कभी पर्याप्त दवा न मिलने की वजह से तो कभी खराब क्वॉलिटी के प्रॉडक्ट के चलते जान गंवा बैठते हैं। सबसे खतरनाक पहलू इस समस्या का यह है कि जो मरीज ठीक हो गए मान लिए जाते हैं, उनके शरीर से भी रोगाणु पूरी तरह खत्म नहीं होते।
मरीज के शरीर ये बचे हुए रोगाणु उन दवाओं का प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं, और जब ये शरीर को दोबारा बीमार बनाते हैं तो मरीज अच्छी दवाओं से भी ठीक नहीं हो पाता। सिमटते संसार में आज की दुनिया में हर देश के लोग अन्य देशों को आते-जाते रहते हैं, इसलिए कमजोर ऐंटिबायॉटिक्स से मजबूत हुए रोगाणुओं के विश्वव्यापी फैलाव की आशंका बनी रहती है यानी इन नकली या घटिया क्वॉलिटी की दवाओं का दुष्प्रभाव किसी खास देश या क्षेत्र तक सीमित नहीं रहने वाला। इनके कारोबार जल्द से जल्द जड़ से खत्म करने के अलावा और कोई रास्ता हमारे पास नहीं है। भारत में तो सरकार को सबका साथ – सबका विकास नारे में सबका स्वास्थ्य भी जोड़ लेना चाहिए। हमारी संस्कृति तो सर्वे सन्तु निरामय: की है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।