राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के चुनाव में एक ही उम्मीदवार के 89 नामांकन प्राप्त हुए इसे क्या कहेंगे ? दबदबा या आंतरिक लोकतंत्र का मखौल। बात कांग्रेस और उसके हो चुके अध्यक्ष राहुल गाँधी के चुनाव की है। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि किसी भी राजनीतिक दल या संगठन के शक्ति के ढांचे में एक परिवार मुख्य बन जाता है, तो उस दल में एक तरह की तानाशाही स्थापित होने का भय रहता है। इसके कारण उस दल में आंतरिक लोकतंत्र एक सिरे से नदारद हो जाता है।
आम तौर पर यह देखा गया है कि वंशवाद का फैलाव केवल उस संगठन में या उस राजनीतिक तंत्र में नहीं होता जहां वैचारिक आधार बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। साम्यवादी चीन, लोकतांत्रिक अमेरिका और इंग्लैंड इसके उदाहरण हैं. जाहिर है कि इन देशों में विचारधारा प्रमुख है, और व्यक्ति गौण है| दुर्भाग्य से भारत में ऐसा नही है और किसी भी राजनीतिक दल का विश्वास स्वस्थ लोकतंत्र अपने सन्गठन में बनाये रखने में है।
विश्व में जहां लोकतंत्र मजबूत है, और विचारधारा प्रमुख है, वहां जो व्यक्ति उस विचार को मजबूत बनाने में, विचार के आधार पर संगठन को मजबूत बनाने में और अपने वैचारिक पक्ष को जनता के समक्ष रखने में जितना ज्यादा सफल और सक्षम होता है, वही व्यक्ति उस संगठन के कार्यकारी पदों पर आसीन होता है। इसलिए वहां वंशवाद का फैलाव संभव ही नहीं है। अमेरिका में ओबामा वंशवाद की देन नही थे, और उनके हटने के बाद उनकी पत्नी और बच्चे राजनीति में नहीं आए लेकिन यह भारत का दुर्भाग्य है कि यहां कोई भी राजनीतिक विचारधारा मजबूती से स्थापित ही नहीं हो सकी है। यही कारण है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक कुछ अपवादों को छोड़कर राजनीति में वंशवाद पूर्णत: फलता नजर आ रहा है।
सिर्फ कांग्रेस पार्टी ही नहीं समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, इनेलो, द्रमुक और यहां तक कि वंशवाद की सबसे बड़ी आलोचक भाजपा भी इससे अछूती नहीं है। चूंकि भारत में अब राजनीति समाज सेवा नहीं रही बल्कि यह एक बड़ा उद्योग बन गया है। इसलिए प्राय: सभी दलों के प्रमुख नेता अपने पुत्र और पुत्रियों को राजनीति में लाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
इसलिए वंशवाद की चाहे जितनी भी आलोचना कर ली जाए लेकिन राजनीति में इससे मुक्त होने की कोई राह दिखाई नहीं देती। अगर ऐसा ही चलता रहा तो भारतीय राजनीति सौ-दो सौ परिवारों तक सीमित होकर रह जाएगी। और यह बात लोकतंत्र के लिए सबसे घातक होगी। भारतीय लोकतंत्र को वंशवाद से बचाने के लिए सभी दलों को आगे आना होगा। सोचना होगा कि वंश जरूरी है या देश।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।