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जनतांत्रिक सरकार का ऐसा व्यवहार शर्मनाक है। जब सेंसर बोर्ड ने फिल्म पर व्यक्त की गई तमाम आपत्तियों की समीक्षा कर ली और जरूरी संशोधन की सिफारिश के साथ उसे पास भी कर दिया, उसके बाद भी फिल्म के विरोध का भला क्या मतलब है? राज्य सरकारों का यह फर्ज बनता है कि वे फिल्म का प्रदर्शन सुनिश्चित करें और दर्शकों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करें। अगर केंद्रीय संस्थाओं के फैसले को धता बताया जाएगा तो हमारी संघीय व्यवस्था मजाक बनकर रह जाएगी। मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात की सरकारों को यह समझना चाहिए कि अपने को इतिहास और संस्कृति का ठेकेदार कहने वाले न जाने कितने संगठन समय-समय पर सामने आते जाते रहे हैं। कभी ये छद्म जातीय गौरव के नाम पर किसी फिल्म या कलाकृति का विरोध करते हैं, तो कभी लेखकों-कलाकारों का जीना मुहाल कर देते हैं। दरअसल इनके जरिए मध्ययुगीन सामंती ताकतें देश में हर तरह की आधुनिकता, प्रगतिशीलता और सृजनशीलता को खारिज करती हैं। अगर भारत को एक विकसित देश और आपको विकसित राज्य बनना है तो उसे संस्कृति के नाम पर फैलाई जाने वाली अराजकता को अस्वीकार करना होगा।
देश के सुप्रीम कोर्ट में आस्था और विश्वास के साथ पुन: जाने का विकल्प मौजूद है। अभी आये फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात की सरकारों द्वारा लगाई गई पाबंदी को एक तरफ रखते हुए इन राज्यों में फिल्म 'पद्मावत' के रिलीज को हरी झंडी दे दी है। उसने इसे लेकर राज्यों को नोटिफिकेशन जारी किए हैं, जिसके बाद चारों राज्यों में फिल्म रिलीज होने का रास्ता साफ हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर सेंसर बोर्ड ने फिल्म को पास कर दिया है तो इसकी अनदेखी करते हुए कोई राज्य सरकार अपने यहां इस पर बैन नहीं लगा सकती। इसका यह अर्थ कतई नहीं है इस फैसले के बाद इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे बंद हो गये है। न्याय में आस्था और विश्वास के साथ वहां जाना ही श्रेष्ठ मार्ग है। यह भी ध्यान में रखना जरूरी राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ती है तो इसे ठीक करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। इन राज्यों के मंत्रियों को अपने विचार व्यक्त करते समय ध्यान रखना चाहिए कि वे सरकार की तरफ से बोलते हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।