राकेश दुबे@प्रतिदिन। जटिल होती जिन्दगी, दिन ब दिन गहराते संकट, नागरिक आन्दोलन की मजबूरी और तंग होते सरकारी नजरिया अब आन्दोलन करने के अधिकार पर भारी हो रहा है। राजधानी दिल्ली के साथ राज्यों राजधानियों में अब आन्दोलन स्थलों के टोटे पड़ रहे है और जो जगह है वहां आन्दोलन करने पर शुल्क माँगा जा रहा है। सालों से दिल्ली में धरना-प्रदर्शन के एकमात्र राष्ट्रीय गवाह रहे जंतर-मंतर पर प्रदर्शन और जिंदाबाद अब दूर की कौड़ी होकर रह गए हैं। यही हाल कमोबेश हर राज्य की राजधानी का है। जिस जगह को आधिकारिक तौर पर आंदोलन के लिए चिह्नित किया जाता है। वहां सरकारी अनुमति मिलाना टेढ़ी खीर होता जा रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में जन्तर मन्तर के धरना स्थल को रामलीला मैदान पहुंचा दिया गया है, यहां सत्ता ने एक मजेदार खेल रचा है। आन्दोलन करने का शुल्क पहले जमा करो।
जनता पहले सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ विरोध के स्वर को जनता जंतर-मंतर पर बिना रुपयों की खनक के बुलंद करती थी, आज उसके लिए उसे हजारों-लाखों रुपये सरकार की झोली में देने होंगे, तभी विरोध प्रदर्शन की इजाजत मिल सकती है यह चलन दिल्ली से किसी भी क्षण किसी अन्य राजधानी में उतर सकता है। सच यह है की सत्ता का अपना ही चरित्र होता है। वह कहने भर को उदार, जनोन्मुखी और गरीबों-मजलूमों के साथ होती है जबकि असल में उसका चरित्र बेहद क्रूर, दंभी और निष्ठुर होता है, वह किसी भी हालत में अपने खिलाफ कुछ भी सुनना नहीं चाहती है।
यही वजह है कि पहले संसद मार्ग, फिर वोट क्लब चौराहा और फिर जंतर-मंतर पर आंदोलन के स्वर को पूरी तरह से बंद कर दिया गया। अब यदि जनता को सत्ता और शासन के विरुद्ध किसी भी तरह की आवाज बुलंद करनी है, तो रुपये खर्च करना पड़ेंगे। यह उस मुल्क का दृश्य है, जो विश्व का सबसे विशाल और उदार लोकतंत्र है। साथ ही, जहां संविधान में उल्लखित अनुच्छेद 19 के तहत अपनी आवाज को आजादी के साथ उठाना मौलिक अधिकार माना गया है। अगर जनता अपनी मांगों और समस्याओं को लेकर सरकार को कुछ बताना चाहती है, या किसी तरह का सुझाव देना चाहती है, तो उसके लिए शुल्क लेकर इजाजत देना कौन सा तंत्र है ? विरोध की आवाज लोकतंत्र का अनिवार्य अंग है, और आंदोलन इस आवाज को प्रकट करने का औजार है।
लिहाजा, जनता से इस अधिकार को नहीं छीना जा सकता। वस्तुत:, सरकार को तो यह सोचना चाहिए कि जनता आंदोलन के लिए मजबूर क्यों हुई? वैसे भी सोशल मीडिया के अतिवादी होने के बावजूद अपनी बातों को कहने का एक भौतिक स्थल तो जनता के पास होना ही चाहिए।
फिर यह कहां का न्याय है कि अपनी तकलीफें बयां करने के लिए जनता पैसे भी खर्च करे? कहने को जनता की आवाज ही लोकतंत्र की मजबूती का आधार है। पर धरना स्थलों को बदलना और उनसे शुल्क मांगना तो ज्यादती है। इस पर फौरन अंकुश लगना चाहिए। मध्य प्रदेश के समाजवादी नेता रघु ठाकुर ने सवाल उठाया है की केंद्र और राज्य सरकार वे स्थान बता दें जहाँ शुल्क और अनुमति के बगैर गाँधीवादी तरीके से धरना दिया जा सके।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।