राकेश दुबे@प्रतिदिन। यह एक अत्यंत गंभीर बात है दो साल में भारत पर्यावरण सुरक्षा के मुद्दे पर फिसलता ही नहीं जा रहा है बलिक मोर्चे पर देश में स्थिति कितनी तेजी से बदतर हुई है। इसका वर्णन एन्वायरनमेंटल परफॉर्मेंस इंडेक्स (ईपीआई) की ताजा रिपोर्ट में दर्ज है। दावोस में वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की बैठक के दौरान जारी हुई इस सालाना रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत इस मामले में दुनिया के चार सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में शामिल है। 180 देशों की इस सूची में भारत 177वें स्थान पर आया है। खास बात यह कि भारत की गिरावट बिल्कुल ताजा है। दो साल पहले हम इस सूची में 141वें नंबर पर थे। दो वर्षों में 36 अंक नीचे लुढ़कना बताता है कि यह सहज, स्वाभाविक गिरावट नहीं है।
यह सब क्यों और कैसे हुआ ? इसकी पड़ताल संकेत देती है इस दौरान कुछ ऐसा हुआ है जिसने अपने देश के पर्यावरण पर जबर्दस्त चोट पहुंचाई है। इसके सूत्र हमें पर्यावरण मंत्रालय की बदली हुई कार्यशैली में मिल सकते हैं। कुछ साल पहले यूपीए सरकार के दौरान पर्यावरण मंत्रालय खासा सक्रिय हुआ करता था। विभिन्न औद्योगिक प्रॉजेक्ट्स को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की हरी झंडी मिलना बड़ी बात मानी जाती थी। अक्सर शिकायतें आती थीं कि पर्यावरण मंत्रालय विकास की रफ्तार को बाधित कर रहा है। इसे कुछ खास मंत्रियों की मनमानी या उनके कथित भ्रष्ट रवैये से भी जोड़ा जाता था। सरकार बदलने के बाद इस रुख में बदलाव आया तो ऐसा कि तमाम प्रॉजेक्टों को पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी एक औपचारिकता भर बन कर रह गई।
एक अति से दूसरे अति की ओर इस यात्रा ने पर्यावरण संरक्षण की एक सुविचारित नीति के अभाव को ही रेखांकित किया है। भारत जैसे एक विकासशील देश में तेज विकास की, बल्कि ज्यादा सटीक ढंग से कहें तो रोजगारपरक विकास की जरूरत से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। सवाल सिर्फ यह है कि प्राकृतिक संपदा का नाश किए बगैर विकास की गाड़ी को आगे ले जाने की राह हम ढूंढ पाते हैं या नहीं। विकास और पर्यावरण संरक्षण को परस्पर विरोधी मानने का नजरिया पुराना पड़ चुका है। जर्मनी, जापान, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे तमाम हैं जो पर्यावरण और विकास दोनों को एक साथ साधने का कौशल दिखा रहे हैं। चीन भी अब उसी राह की ओर बढ़ रहा है। हमें भी सोचना होगा कि इस कठिन चुनौती को स्वीकार करने का जज्बा हम दिखाते हैं, या इससे कतरा कर गाल बजाने को ही अपनी कामयाबी मानते हैं। गाल बजाने की जगह सबको मिलकर कुछ करना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।