शैलेन्द्र सरल। कोरेगांव हिंसा में अब पूरा महाराष्ट्र सुलग रहा है। बाजार बंद कराए जा रहे हैं। चक्काजाम हैं। रेल रोक दी गईं। आम जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया। जातीय हिंसा पर राजनीति जारी है। लोकसभा में भी हिंसा रोकने के बजाए इस बात पर ज्यादा संघर्ष दिखाई दे रहा है कि इसके लिए आरएसएस जिम्मेदार है या कांग्रेस लेकिन इस सबके बीच एक आम आदमी का सवाल यह है कि इस कार्यक्रम को अनुमति ही क्यों दी गई। यह कार्यक्रम भारत के गौरव का विषय तो कतई नहीं था।
कोरेगांव की लड़ाई के बारे में तो आप सभी जान ही गए होंगे। 400 साल पहले बाजीराव पेशवा की एक सेना जिसमें 2000 सैनिक थे, अंग्रेजों की सेना से युद्ध करते हुए पराजित हो गई थी। इस युद्ध में अंग्रेजों की ओर से कुछ दलित सैनिक भी लड़े थे। उनकी संख्या करीब 600 थी। इतिहास में स्पष्ट रूप से दर्ज है कि इसमें जीत अंग्रेजी सेना की हुई और पराजय पेशवा की सेना को मिली। सैनिकों का समूह एक जाति विशेष था, लेकिन यह जातिगत संघर्ष नहीं था। इसमें जीत भी किसी जाति की नहीं हुई थी। महाराणा प्रताप के खिलाफ मुगलों की ओर से भी कई जातियों के लोग युद्ध में शामिल हुए थे और उन्होंने महाराणा प्रताप को पराजित भी किया था परंतु ऐसी घटनाओं का जश्न नहीं मनाया जाता।
पिछले 400 साल से एक जाति विशेष के लोग इसे अपनी जीत मानकर जश्न मनाते आ रहे हैं। सीधे शब्दों में कहा जाए तो यह भारत पर अंग्रेजों की जीत का जश्न है। क्या फर्क पड़़ता है कि अंग्रेजों की सेना में सैनिकों की जाति या धर्म क्या था। यह गौरव का विषय तो कतई नहीं हो सकता। यह लड़ाई ना तो छुआछूत के खिलाफ थी और ना ही इस लड़ाई के बाद दलितों को कोई विशेष सम्मान या आरक्षण प्राप्त हुआ।
आजादी के बाद पिछले 70 सालों में क्या हुआ, इस पर बहस करना बेकार है परंतु पिछले 3 सालों से तो देश बदल रहा है। सरकारों की सोच बदल रही है। सवाल यह है कि सरकार ने इस आयोजन की अनुमति ही क्यों दी। जिस देश में तीन तलाक जैसी मजबूत परंपरा को तोड़ा जा सकता है वहां इस आयोजन की परंपरा को तोड़ना क्या मुश्किल काम था। सरकार की एक गलती के कारण आज पूरा महाराष्ट्र तनाव में हैं।