
भीमा-कोरेगांव की लड़ाई 1 जनवरी 1818 को लड़ी गई थी। इस लड़ाई में मुख्यत: दलित महारों को लेकर गठित ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की फौज को हराया था। कुछ दलित इसे ब्राह्मण शासक पर अपनी जीत के रूप में देखते हैं और चंद लोग हर साल इसकी सालगिरह मनाते हैं। कुछ लोगों ने इस पर सवाल उठाया और कहा कि यह जीत तो असल में अंग्रेजों की थी, और आजाद भारत में अंग्रेजों की सफलता का जश्न क्यों मनाया जाए? ऐसा सोचने वाले दलित चिंतक समाज में है। यह विवाद कई सालों से चल रहा है, लेकिन इस बार यह हिंसक टकराव में बदल गया।
देश के इतिहास में इस तरह के कई वाकये हैं, भारतीय समाज को बाँट कर राजनीति ने तब भी खेल खेले थे और अब उसका दोहराव हो रहा है। अगर हम आपसी युद्ध से उन्हें सुलझाने में जुट जाएं तो हमारा समाज एक भूलभूलैया में भटक कर रह जाएगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि सदियों पहले हमारे सामाजिक संबंध काफी अलग थे, और अतीत की उलझनें आसानी से पीछा नहीं छोड़तीं। लेकिन एक सभ्य समाज अतीत की ओर मुंह किए रहने के बजाय वर्तमान संदर्भों में इन उलझनों का कोई सर्वमान्य हल ढूंढता है।
सबसे अच्छा होता है भविष्य की चुनौतियों को सबके लिए इतना महत्वपूर्ण बना देना कि इतिहास की चोटें बेमानी हो जाएं। नागरिकों की सोच और संवेदना इस स्तर की हो जाए कि न तो वे अपना सामुदायिक गौरव बोध अतीत में ढूंढें, न ही किसी और का गौरव बोध उन्हें अपने आत्मसम्मान से टकराता लगे।
चेतिए, राजनीति हम भारतीयों को बाँट रही है। इसका परिणाम यह होगा समाज अतीत को लेकर आपस में उलझ जाएगा तो सत्ताधारी वर्ग अपने सारे वायदों को ठंडे बस्ते में डालकर चैन की बंसी बजाने लगेगा। इसलिए अब इस टकराव को ठंडा करने का प्रयास किया जाए। राजनेता भी जान लें कि ऐसे मामलों का कोई तुरत-फुरत सियासी फायदा उन्हें भले ही मिल जाए, लेकिन देश में उनकी साख तभी कायम होगी, जब वे लोगों में अच्छे भविष्य की उम्मीद जगाएंगे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।