राकेश दुबे@प्रतिदिन। यह बीसवीं सदी की सोच का नतीजा है जिसमें कर्मचारी को निष्पादन के बजाय कार्य के घंटों के लिए वेतन मिलता है। इसी तरह आय वितरण और असमानता जैसी राजनीतिक एवं फैशनपरक आर्थिक चिंताएं भी रही हैं। इन चिंताओं ने ही फॉर्म 16 वाले रोजगार में उफान भरने का काम किया है। सच तो यह है कि इन सभी बिंदुओं का एक राजनीतिक संदर्भ भी रहा है और अब वह बदल चुका है। फॉर्म 16 भरने वाले नौकरीपेशा रोजगार का सीधा-सा मकसद है कि अमुक व्यक्ति की आय का प्रवाह सुगम करना ताकि उसे मासिक आधार पर एक रकम मिलती रहे और ३५-४० साल तक वह उससे जुड़ा रहे।
सामाजिक स्थायित्व के लिए इसे बेहद जरूरी माना जाता रहा है। १९१७ के पहले ऐसा नहीं होता था। उस साल रूस में क्रांति होने के बाद दुनिया भर में साम्यवाद का खतरा बढ़ गया जिसके बाद पूंजीवादियों के समर्थक राजनीतिक दलों ने रोजगार में स्थिरता को अहमियत देने की बात शुरू कर दी। बीसवीं सदी के पहले साम्यवाद का खतरा नहीं था और रोजगार की अवधारणा भी काफी अलग थी।
२१ वीं सदी में २० वीं सदी की फॉर्म 16 वाली रोजगार अवधारणा भी खत्म हो रही है। सच तो यह है कि फॉर्म १६ रोजगार की अवधारणा लगभग खत्म हो चुकी है। अमेरिका में इसे 'गिग इकॉनमी' कहा जाता है (जिसमें एक निश्चित अवधि के लिए प्रोजेक्ट आधारित रोजगार मिलता है)। गिग इकॉनमी बेहतर आर्थिक नतीजों के लिए कहीं अधिक मुफीद होती है। उसमें सरकारों के लिए लक्ष्य नौकरियों के बजाय काम हो जाता है जिसका मतलब है कि वेतन के बजाय आय महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इस स्थिति में सरकार की कोशिश ऐसा माहौल बनाने की होती है जिसमें लोग अधिक आय अर्जित कर सकें।
भारत में भी कुछ ऐसा ही होना चाहिए। वास्तव में ऐसा हो भी रहा है। बीसवीं सदी की सोच हावी होने के चलते लोग यह भूल चुके हैं कि आर्थिक नजरिये से एक परिवार की सालाना आय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है। आय वृद्धि का माहौल पैदा करना राजनीतिक प्रतिरूप होता है। संभव है कि एक परिवार छह महीनों तक कोई कमाई न करे, फिर भी उसकी सालाना आय अधिक हो सकती है। कृषि क्षेत्र में तो ऐसा ही होता है। किसानों को साल के चार-पांच महीनों में किए गए कार्यों की ही कमाई होती है। पेशेवरों की भी आय का कोई सुनिश्चित प्रवाह नहीं होता है फिर भी वे सालाना स्तर पर अच्छी-खासी कमाई कर लेते हैं। ऐसे और भी कई उदाहरण हो सकते हैं। बाजार के लचीला होने की वजह से ऐसा होता है। और जैसा कि हम जानते हैं, नमनीय बाजार अधिक उत्पादकता के लिए अपरिहार्य होते हैं।
साधारण बात यह है कि उत्पादकता बढ़ाने की मांग करने वाले लोग ही कठोर बाजार कारकों की वकालत करते हैं। लेकिन यह बात अपनी जगह कायम है कि एक गैर-निष्पादित परिसंपत्ति और एक स्थायी कर्मचारी में कोई फर्क नहीं होता है। उनके प्रतिफल काल्पनिक (नोशनल) ही होते हैं। इस मामले में सरकारी कर्मचारी तो एकदम सटीक उदाहरण पेश करते हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।