
इस मामले में आये तथ्य कहते हैं कि केवल दो कर्मचारी बैंक के भीतरी स्विफ्ट सिस्टम और अनाधिकारिक पत्रों का इस्तेमाल करते हुए जोखिम का पता लगाने वाली हर व्यवस्था को धता बताने में कामयाब रहे, प्रश्न यह है कि कैसे ? आखिर धोखाधड़ी पर आधारित यह व्यवस्था इतने लंबे समय तक कामयाब कैसे होती रही? यह सिलसिला पूरे सात साल तक चलता रहा। अगर किसी व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ करना इतना आसान हो या ऐसी अनदेखी संभव हो तो क्या यह स्वीकार्य होना चाहिए था? बैंकों के बीच ऐसा सहज तालमेल यह भी बताता है कि सुधार रहित और व्यापक तौर पर राष्ट्रीयकृत बैंकों में किस कदर जोखिम मौजूद है। निजी क्षेत्र हो या सरकारी लेकिन जमाकर्ताओं के पैसे का गंवाया जाना प्रबंधकीय जवाबदेही है। जिन लोगों की वजह से यह गड़बड़ी हुई है उन सभी को उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए।
पहले यह साबित हो चुका है कि निजी बैंक जवाबदेही के मोर्चे पर कमजोर रहे हैं लेकिन सरकारी क्षेत्र की स्थिति तो और खराब रही है। उनके संचालन के ढांचे को देखकर इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं होता है। पीएनबी मामला दिखाता है कि सरकारी बैंकिंग क्षेत्र किस कदर दिक्कतों और व्यवस्थागत नाकामी का शिकार है। उनमें निगरानी और प्रक्रियाओं का पालन भी सही ढंग से नहीं हो रहा है। यह सारा कुछ बहुत व्यापक स्तर तक पनप चुका है। भारतीय रिजर्व बैंक लंबे समय से बैंकिंग क्षेत्र को चेतावनी देता रहा है कि उच्च मूल्य के धोखाधड़ी भरे लेनदेन गंभीर चिंता का विषय बन चुके हैं। नियामक जटिल वित्तीय लेनदेन को लेकर नियम कड़े करता रहा है। उसने निगरानी बढ़ाई और बैंकों के बोर्डों को ऐसे खतरों को लेकर समय-समय पर अवगत कराता रहा है। जब तक उनमें प्रमुख हिस्सेदार यानी सरकार जवाबदेही नहीं डालती है तब तक समय-समय पर ऐसे मामले सामने आते ही रहेंगे। परिवर्तन जरूरी है, जिससे कोई मेहता माल्या या मोदी आगे से सरकार की आँख में धूल झोंक कर फरार न हो सके।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।