राकेश दुबे@प्रतिदिन। कृत्रिम बुद्धि यानी Artificial Intelligence या एआई बहुत चुपके से हमारे जीवन में प्रवेश कर चुकी है। यह उसका शैशव काल है, इसलिए फिलहाल हम उसकी सक्रियता खिलौनों में ही देख रहे हैं। जैसे स्मार्टफोन में, हमारे कंप्यूटरों के छोटे-मोटे एप्लीकेशंस में या कॉल सेंटर वगैरह में।जब भी कोई नई बात जीवन में आती है, तो ऐसे ही आती है अन कृत्रिम बुद्धि के औद्योगिक इस्तेमाल भी शुरू हो गए हैं, लेकिन वे अभी अपनी शुरुआती अवस्था में हैं। इसे लेकर भविष्य का खाका अभी से खींचा जाने लगा है। उनके द्वारा भी, जिनके पास इसकी परीकथाएं हैं और उनके द्वारा भी, जो भविष्य की प्रेतगाथाओं को रचने के लिए जाने-मने जाते हैं।
कोई भी नई तकनीक जब आती है, तो सबसे पहली चिंता रोजगार को लेकर उभरती है, जो कि स्वाभाविक भी है। यही औद्योगिक क्रांति के समय हुआ था और कंप्यूटर क्रांति के समय में भी। उद्योगों में रोबोट का जब इस्तेमाल शुरू हुआ, तब भी यही कहा गया। यह सच है कि ऐसी तकनीक के आगमन पर कुछ क्षेत्रों में लोग बेरोजगार भी हुए, लेकिन कई दूसरे क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर भी बने। कुल मिलाकर जितने रोजगार गए, उनसे कहीं ज्यादा इसके अवसर बढ़े सभी तकनीको का इस्तेमाल उत्पादकता बढ़ाने में हुआ। उत्पादकता जब बढ़ती है, तो रोजगार के अवसर भी बढ़ते हैं और कुछ हद तक संपन्नता भी। इतनी ही उम्मीद हम कृत्रिम बुद्धि से भी पाल सकते हैं।
आम चर्चा है कि जल्द ही हमें अनुवादकों की जरूरत नहीं रहेगी, या सेक्रेटरी और क्लर्क के पद अब हमारे दफ्तरों से हमेशा के लिए खत्म होने जा रहे हैं। लेकिन कृत्रिम बुद्धि जब जीवन के हर क्षेत्र में तैनात होगी, तब क्या होगा? कृत्रिम बुद्धि से लैस रोबोट कई मामलों में हमारे हमारे डॉक्टरों, इंजीनियरों या शायद वैज्ञानिकों से भी बेहतर साबित हो सकते हैं। वे कंपनियों के ज्यादा अच्छे डायरेक्टर हो सकते हैं, शेयर बाजार के ज्यादा अच्छे सटोरिए बन सकते हैं, ज्यादा अच्छे प्रशासक हो सकते हैं। हो सकता है कि आगे चलकर विचारक, समाजशास्त्री, दार्शनिक भी वही हों और लेखक-संपादक भी। सच यही है कि हमें नहीं पता कि यह कृत्रिम बुद्धि कहां तक पहुंचेगी?
महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग के तर्क कुछ सोचने को मजबूर करते हैं । जैसे उन्हें लगता है कि यह कृत्रिम बुद्धि आगे चलकर मानव सभ्यता के लिए खतरा साबित हो सकती है। दार्शनिक निक बासट्राम मानते हैं कि इस कृत्रिम बुद्धि में इतनी क्षमता है कि आगे चलकर यह मानव सभ्यता का ही सफाया कर सकती है। जो इस अति तक नहीं सोच रहे, वे भी मानते हैं कि यह रास्ता हमें पोस्ट ह्यूमन उत्तर मानव युग की ओर ले जा सकता है। यानी एक ऐसा युग, जब मानव तो होगा, लेकिन उसका बोलबाला वैसा नहीं रहेगा, जैसा अब है। ऐसा इसलिए भी है कि हम पिछले कुछ समय से अपनी जिंदगी के बड़े फैसले करने का अधिकार कंप्यूटरों को देते जा रहे हैं। कुछ लोग अगर कृत्रिम बुद्धि के युद्धों में इस्तेमाल की आशंका को लेकर चिंतित हैं, तो कुछ इस बात से कि यह हमारी निजी जिंदगी तक में दखल देने लगेगा।
वैसे तो हम अभी भी उन सीमाओं को लेकर लड़ रहे हैं, जो अतीत के किसी घटनाक्रम में खींची गई थीं। धर्म, जाति व जातीयता के सदियों पुराने वैमनस्य अभी भी हमारे बीच अपनी पूरी धमक के साथ मौजूद हैं। ऐसे में, अगर ढेर सारी संभावनाओं और आशंकाओं वाली तकनीक हमारे बीच आई, तो खतरा यह है कि वह भी देर-सबेर ऐसे वैमनस्य बढ़ाने का औजार बन जाएगी। हम अगर अपने कृत्रिम तर्कों को छोड़कर सभ्य नहीं बने, तो कृत्रिम बुद्धि हमें ही असभ्य घोषित कर दें।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।