राकेश दुबे@प्रतिदिन। इन दिनों अखबार पूरे पेज पर अपना विज्ञापन कर अपने हाथ से अपनी पीठ ठोंक रहे हैं। देश की राजधानी दिल्ली, मुम्बई अन्य राज्यों की राजधानी से निकलने वाले अख़बार अपनी पाठक संख्या के दावे में की सूचना विज्ञापन के माध्यम से दे रहे हैं। साथ-साथ वे यह भी कहना नहीं भूल रहे कि उनका प्रतिद्वंदी समाचार पत्र कहाँ खड़ा है ? दावे दोनों और से इसी शैली में हो रहे हैं। पाठक संख्या के इन दावों को अगर जोड़ लिया जाये तो कई जगह यह स्थिति आती है कि सारे अखबारों की पाठक संख्या शहर की जनसंख्या से ज्यादा या लगभग बराबर हो जाती है। ऐसे में कई सवाल खड़े होते हैं। जिनमें सबसे बड़ा सवाल इन अख़बारों में कार्यरत श्रमजीवियों के वेतन से भी जुड़ता है। वेतन के इस मसले को बढती प्रसार और पाठक संख्या के अनुपात से देखना तो दूर, समझने को भी कोई तैयार नहीं है।
करीब 1262 अरब करोड़ रुपये के आकार वाले भारतीय मीडिया एवं मनोरंजन उद्योग के विकास को मापने वाले हरेक ढांचे पर अपनी पसंद से आंकड़े चुनने और खुद को संबंधित वर्ग में बाजार का अगुआ दिखाने की प्रवृत्ति देखी जाती रही है। हालत यह हो गई है कि उद्योग के विकास को मापने के लिए तैयार किए जाने वाले आंकड़े मजबूती हासिल करने के बजाय इस राजनीति के चलते कमजोर पड़ते जा रहे हैं।
डिजिटल मीडिया में तो अभी तक कोई तटस्थ सर्वेक्षक नहीं सामने आया है जिसे सभी पक्ष स्वीकार करते हों। टेलीविजन उद्योग को रेटिंग अंकों को लेकर लड़ाई करने के बजाय एक भरोसेमंद मापन प्रणाली स्वीकार करने में दशक से अधिक वक्त लग गया। टेलीविजन उद्योग के काफी हद तक पेशेवर तरीके से संचालित होने और नियामकीय ढांचे के गठन दोनों ने ही इस दिशा में मदद की। भारत का 303.30 अरब रुपये का प्रिंट उद्योग कहीं अधिक पुराना है और अधिकांश प्रकाशनों का जिम्मा इनके मालिक-प्रबंधकों के पास है। ऐसे में पाठक संख्या और प्रसार संख्या में थोड़ा भी फेरबदल होने पर इन अखबार मालिकों के आत्मसम्मान को ठेस लग जाती है, परन्तु वे इस उद्ध्योग की रीढ़ श्रमजीवियों की और देखने की कभी कोशिश नहीं करते।
रीडरशिप आंकड़े का इस्तेमाल उस मुद्रा की तरह किया जाता है जिसके बलबूते अखबार अपने यहां प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों की दरें तय करते हैं। वर्ष 2012 में आईआरएस की मापन पद्धति में आमूलचूल बदलाव करते हुए उसे नई तकनीक के मुताबिक ढालने एवं व्यापक दायरा देने की कोशिश की गई थी। वर्ष 2014 की शुरुआत में आए आंकड़ों ने सभी पक्षों को दहला दिया था क्योंकि उसमें ढेरों गलतियां थीं और आंकड़ों के चयन में भी छेड़छाड़ के आरोप लगे। उन आंकड़ों की विधिवत समीक्षा के बाद अगस्त 2014 में संशोधित नतीजे जारी किए गए लेकिन प्रकाशकों ने उसे भी मानने से मना कर दिया। चर्चा यह थी कि हिंदी एवं अंग्रेजी के कई अखबार अपनी पाठक संख्या की वृद्धि दर में आई गिरावट से खासे भयभीत थे। उसके बाद से आईआरएस को मौजूदा मुकाम तक पहुंचने में तीन साल लगे।
नियंत्रण एवं संतुलन के नए तरीके भी अपनाए गए ताकि इस बार रीडरशिप सर्वे के आंकड़े बेदाग बनाए जा सके। इसके लिए 3.2 लाख नमूने का व्यापक आधार भी तैयार किया गया। वैसे मापन-पद्धति अब भी 2014 वाली ही है। आंकड़ों में कटौती और मीडिया के साथ साझा की गई जानकारी में हुए बदलाव पर्दे के पीछे के घटनाक्रम को बखूबी बयां करते हैं। इस बार पिछले एक महीने की समग्र पाठक संख्या पर अधिक जोर दिया गया है जो पहले विज्ञापनदाताओं द्वारा अपनाए जाने वाले तरीके एआईआर का तीन-चार गुना होता है। टोटल रीडरशिप के हिसाब से देखें तो इस समय 38.5 करोड़ से अधिक भारतीय रोजाना एक अखबार पढ़ते हैं जबकि 2014 में यह आंकड़ा 27.6 करोड़ था। इस तरह चार साल में ही कुल पाठक संख्या में 10.9 करोड़ यानी 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। भारत में प्रिंट व्यवसाय तेजी से बढ़ रहा है और मुनाफा भी कमा रहा है। इसके विपरीत अब तक यह उद्ध्योग, उद्ध्योग की रीढ़ पत्रकारों और गैर पत्रकारों निर्धारित वेतमान मान और अन्य सुविधा नहीं दे सका है। सरकार भी इस और देखने को तैयार नहीं। यह स्थिति बदलना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।