
एक तो पुरुष-सत्ता वाले समाज में उस पर पति या परिवार का प्रत्यक्ष या परोक्ष अधिकार हो जाता है। दूसरे, वह पुश्तैनी संपत्तियों जितनी सुरक्षा प्रदान करने में पर्याप्त नहीं होता। फिर बेटियों को हर मामले में बेटों के बराबर अधिकार होने से स्त्री-पुरुष समानता के अलावा समाज में बेटों के प्रति मोह भी कुछ घटेगा। लिहाजा, इससे पुरुष वर्चस्व वाली व्यवस्था की बुनियाद भी हिलेगी। हाल में बेटों के प्रति मोह का एक उदाहरण इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में उभर कर सामने आया। हालांकि इसका एक सुखद पहलू स्त्री जनसंख्या में कुछ बढ़ोतरी के रूप में सामने आया, जो घटते स्त्री-पुरुष अनुपात और कन्या भ्रूण हत्या के दौर में निश्चित ही शुभ कहा जा सकता है।
आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि बेटों की चाह में बेटियों की आबादी 2.1 करोड़ ज्यादा हो गई। बेटियों की जनसंख्या के मामले में यकीनन यह खुशखबरी है और इससे स्त्री-पुरुष अनुपात कुछ बेहतर भी हुआ है लेकिन असली सवाल मानसिकता का है या कहिए उससे भी बढ़कर समाज में पुरुष वर्चस्व का है। यह तभी टूटेगा जब स्त्रियों को संपत्ति में पूरा अधिकार हासिल होगा।
इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने एक मायने में क्रांतिकारी फैसला सुनाया है, जिससे हमारे समाज का रंग-ढंग कुछ बदल सकता है। ऐसी ही बुनियादी नुक्ते बदलाव का कारक बनते हैं। इसका असर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे अभियानों से ज्यादा होता है। इसलिए सरकार अगर स्त्रियों के लिए और सकारात्मक कानूनी रियायतें देने का कदम उठाए तो उसका ज्यादा असर होगा। संसद और विधायिकाओं में एक-तिहाई महिला आरक्षण विधेयक अभी लटका पड़ा है। यूपीए सरकार के दौरान यह विधेयक लोक सभा में अटक गया था। खासकर पिछड़े वर्ग के नेताओं ने कुछ आशंकाएं जाहिर की थीं। इस फैसले से सबक लेते हुए सरकार को चाहिए कि सर्वानुमति बनाकर स्त्रियों का यह हक उन्हें दिलाए। राष्ट्र करवट ले रहा है,समानता की बात यही से शुरू हो तो उत्तम।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।