राकेश दुबे@प्रतिदिन। वैसे तो बैंक घोटाले के सुर्खियों में आने के बाद बैंकों के आंतरिक नियंत्रण, कॉरपोरेट प्रशासन और कायदे-कानूनों की विफलताओं पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। ये निश्चय ही हल्के मसले नहीं हैं। इन पर ध्यान दिया ही जाना चाहिए। हालांकि इन्हीं के चलते यह सवाल उठाना भी महत्वपूर्ण है कि बैंक शाखाओं में मौजूद उन कर्मचारियों से कैसे पार पाया जाए, जो धोखेबाजों से सांठ-गांठ करते हैं? इन कर्मचारियों के साथ बैंक को अपनी इंसेंटिव प्रणाली पर भी विचार करना चाहिये।
भारतीय बैंकों की इन्सेंटिव प्रणाली बहुत खराब है। वेतन ग्रेड वरिष्ठता के कड़े कानूनों में फंसा है। इसमें किसी कर्मचारी को बर्खास्त करना लगभग नामुमकिन होता है। दंडित करने के लिए तबादले का डर दिखाया जा सकता है, लेकिन यह अस्त्र भी आमतौर पर उन्हीं ईमानदार कर्मचारियों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है, जो खेल में शामिल नहीं होते। इन तमाम पहलुओं को सार्वजनिक क्षेत्र की संस्कृति के संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है। यह ऐसी संस्कृति है, जिसमें वरिष्ठ बैंककर्मियों का प्रदर्शन क्वालिटी की बजाय क्वांटिटी से आंका जाता है, अथवा पूंजी पर रिटर्न की बजाय यह देखा जाता है कि सरकार के राजनीतिक हित को पूरा करने के लिए कितना कर्ज दिया गया है। मौजूदा डूबे कर्ज कुछ हद तक इसी ‘क्रेडिट बबल’ का नतीजा है, साथ ही दबदबे वाली इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनियों को राजनेताओं के दबाव में दिए जाने वाले कर्ज का भी यह परिणाम है।
सवाल यह है कि क्या इन्सेंटिव का बेहतर ढांचा बैंककर्मियों द्वारा कर्ज देने के तरीके को बदल सकता है? एक शोध के जरिए यह जानने का प्रयास किया कि अलग-अलग इन्सेंटिव योजनाएं बैंकरों के व्यवहार को किस तरह बदल सकती हैं? उन्होंने इस प्रयोग के लिए विभिन्न भारतीय बैंकों से 209 लोन अधिकारियों को जमा किया। उन बैंकरों को एक बार फिर उद्यमियों के ऋण आवेदन पत्रों का रैंडम सैंपल दिखाया गया, पर उन्हें यह कह दिया गया कि वे इन तमाम आवेदन पत्रों को नया मानें। वे ऐसे काजगात थे, जिन पर पहले ही कर्ज दिए जा चुके थे और शोधार्थियों को प्रयोग से पहले ही यह पता था कि कौन से कागजात अब भी दुरुस्त हैं, और कौन से डूबे कर्ज में शामिल हैं।
शोध में तीन तरह के इन्सेंटिव रखे गए थे। पहली तरह का इन्सेंटिव वह था, जिसमें प्रत्येक लोन पर संस्थान द्वारा अधिकारी को कमीशन देने की व्यवस्था थी। दूसरी तरह का अपेक्षाकृत कम इन्सेंटिव था, जिसमें अधिकारी अच्छे लोन पर छोटा सा पुरस्कार और बुरे लोन पर कुछ दंड के भागीदार होते। और तीसरी व्यवस्था में कहीं अधिक इन्सेंटिव का प्रावधान रखा गया था, जिसमें अच्छे लोन पर अधिकारी को भारी पुरस्कार और लोन के डिफॉल्ट होने पर कहीं भारी दंड का प्रावधान था।
इसके नतीजे काफी दिलचस्प आए। बैंककर्मियों ने उन मामलों में अधिक कर्ज बांटे, जब गिरवी में रखी परिसंपत्ति कम थी, पर उन्होंने उन मामलों में कहीं अधिक सावधानी बरती, जब गिरवी में रखी परिसंपत्ति अधिक थी।
इस इन्सेंटिव समस्या को उन सुविधाओं के नजरिये भी देखना चाहिए, जो प्रौद्योगिकी के कारण पैदा हुए हैं। ज्यादातर बैंकिंग धोखाधड़ी के मामले उन क्षेत्रों में होते हैं, जो ग्रे एरिया हैं यानी वहां अब तक कायदे-कानूनों का बंधन नहीं पहुंच सका है। तमाम निर्देशों के बावजूद अंडरटेकिंग लेटर के आंकड़े कोर बैंकिंग सिस्टम में अपलोड नहीं किए जा सके। स्विफ्ट मैसेजिंग सिस्टम का दुरुपयोग भी तकनीक के इस्तेमाल पर नियंत्रण में एक स्तर की विफलता का उदाहरण है। सरकार को इस विषय पर गंभीरता से सोचना होगा , वरन बागड़ खेत खा जाएगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।