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लगभग चार दशक पहले पड़ोसी देश चीन के लिए भी जनसंख्या एक अभिशाप बन चुकी थी। मगर उसके एक विवाहित दंपति के लिए एक संतान के सिद्धांत ने ऐसा चमत्कार किया कि आज सरकार को अपनी युवा शक्ति वरदान दिखाई देने लगी और चीन सरकार ने लगभग तीन वर्ष पूर्व एक दंपति के लिए दो संतान को वैधानिक अनुमति दे दी। ऐसा नहीं कि बीच की अवधि में किसी भी घर में दो या अधिक संतानें पैदा नहीं हुईं, पर कानूनी भय, संतान को मिलने वाली नागरिक सुविधाओं में कटौती और आर्थिक दंड के डर से चीन के समाज ने इसे स्वीकार किया। एक से अधिक संतानों वाले परिवारों के सामने जैसी मुश्किलें आईं, उसने सरकार की इस मंशा को लागू करने में सफलता ही नहीं दिलाई, पारंपरिक रूप से भारतीयों की तरह पुत्र प्रेम के वशीभूत चीनी समाज को सोच के स्तर पर आधुनिक भी बनाया। एक दंपति-एक संतान के सिद्धांत से जहां लिंग भेद की समस्या काबू में आई, वहीं एक ही बच्चे की परवरिश आसानी से कर पाने की स्थिति ने परिवार में अन्य कई भौतिक योगदान भी किए। एक लाभ यह भी हुआ कि चीनी समाज में आर्थिक समृद्धि आई।
इससे उल्ट भारत में जनसंख्या नियंत्रण के सरकारी प्रयासों को धता बताने और जाति-धर्म के नाम पर अपनी-अपनी जनसंख्या नीति घोषित करने वाले स्वयंभू ठेकेदारों की भी कमी नहीं है। जाहिर है, इस बहाने से वे इस या उस राजनीतिक दल के लिए भीड़ या वोट जुटाने का जरिया बन जाते हैं। ऐसा नहीं कि चीन में जनसंख्या वृद्धि रोकने की कोशिश का विरोध न हुआ हो या सभी लोगों ने इसका अक्षरश: पालन किया हो। लेकिन यह भी सच है कि इसी नीति के कारण चीन रोजगार, भोजन, शिक्षा और चिकित्सा के मूलभूत मुद्दों पर ध्यान दे सका और माता-पिता निजी स्तर पर भी अपनी संतानों के भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान दे सके। भारत का मामला भी अलग नहीं है। यहां की युवा पीढ़ी को रोजगार मुहैया कराने की कितनी भी कोशिशें की जाएं, सरकारें रोजगार नीति पर तब तक खरी नहीं उतर पाएंगी, जब तक कि वे जनसंख्या नियंत्रण की कोई प्रभावी नीति लागू नहीं करतीं। भारत की हर नीति जन-दबाव के आगे विफल है। वह चाहे भोजन, आवास, चिकित्सा, शिक्षा, सुरक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताएं हों या संचार, आवागामन, विकास और देश की तकनीकी व वैज्ञानिक उन्नति अथवा प्रदूषण नियंत्रण, भष्टाचार मुक्ति से लेकर तमाम सामाजिक बुराइयों से उबरने की बात। जनसंख्या नियंत्रण पहली सीढ़ी है, जो तमाम कमियों से छुटकारा दिला सकती है।
भारत में वोट बैंक की राजनीति का दबाव सरकारों को कठिन निर्णय लेने से रोकता है। सरकारें ऐसे फैसले लेने में कई बार घबराती हैं, परंतु लोक-कल्याणकारी सरकारों का यह भी दायित्व है कि वे देश की भावी संभावनाओं के व्यापक हित में कठोर कदम भी उठाएं। वर्ष 2021 की जनगणना अब बहुत दूर नहीं है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।