राकेश दुबे@प्रतिदिन। प्रधान मंत्री की अपील भी मूर्ति भंजन आन्दोलन को रोक नहीं पा रही है। हर दिन किसी न किसी ओर से मूर्ति तोड़ने की खबर आ रही है। एक अजीब सी बात भी इन दिनों दिखी। सीपीएम खुद पहल लेकर तोड़-फोड़, हिंसा और आगजनी की रिपोर्ट करने को लेकर उदासीन है। सभी दलों की इस व्यापक विषय पर प्रतिक्रिया पर उदासीनता यह सवाल खड़े करती है। क्या यह हिंसा महत्वहीन है? क्या इसकी उपेक्षा कर दी जाए? या, विजेताओं द्वारा की जा रही हिंसा जायज है और इसे बर्दाश्त किया जाना चाहिए? सवाल के जवाब देश की राजनीतिक समझ और भविष्य की राजनीति का भी है।
सीपीएम की निरीहता देखिये वह सिर्फ बीजेपी से ही यह अपील कर रही है कि जबरदस्त जीत के बाद वह हिंसा को अंजाम न दे। हिंसा का प्रतिरोध करने की उसकी अक्षमता यह दिखाती है कि पार्टी के पास अपनी कोई ताकत नहीं है, इसके पास सिर्फ राज्य प्रशासन की ताकत थी। जिस तरह से इसने हिंसा को होने दिया, उससे तो यही साबित होता है कि पार्टी सिर्फ ताश के पत्तों का ढेर थी और उसके कार्यकर्ताओं का जन विचारधारा की बड़ी-बड़ी बातों में कोई खास भरोसा नहीं था।
पश्चिम बंगाल में भी उसकी स्थिति कुछ ऐसी ही थी और सत्ता के अपने दिनों से उसे सिर्फ इतना हासिल हो पाया कि इसने एक फौज खड़ी कर ली, जिन्होंने सत्ता हाथ से जाते ही उन्हें छोड़ दिया। और उसके पास अपने प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को देने के लिए कुछ भी नहीं बचा। सीपीएम अतीत में हिंसा में शामिल रही है, तो उसके खिलाफ अब हिंसा जायज नहीं हो जाती। लोकतंत्र बदले की कार्रवाई और प्रतिद्वंदी हिंसा के सहारे नहीं चल सकता।
इस तरह की घटनाएं सभी राजनीतिक दलों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए, न कि सिर्फ उस राजनीतिक दल के लिए, जिसको निशाना बनाया जा रहा है। सबसे बेहतर ये है कि राजनीतिक दलों को इसे सर्वदलीय मुद्दा बनाकर इसको लेकर राष्ट्रपति के पास जाना चाहिए।
त्रिपूरा में पुलिस का जो रवैया इन हमलों के प्रति है उससे भी यह पता चलता है कि वह भी दूसरे राज्यों जैसी पुलिस ही है और सत्ता में बैठे लोगों की गुलाम है। कल तक वे सीपीएम की सुन रहे थे और आज वे उस पर हमला करन वालों की बात मान रहे हैं। ऐसा लगता है कि उसे यह समझ नहीं है कि वह राज्य की मशीनरी का हिस्सा है और सौहार्द और कानून को बनाए रखना उसकी जिम्मेदारी है। सीपीएम को बंगाल की खाड़ी में फेंक देने और हीरा के लिए माणिक को त्रिपूरा से निकाल देने के आक्रमक इशारे इसकी जद में हैं। हमें इसे लेकर चिंतित होना चाहिए कि चुनाव अब युद्ध की तरह लड़े जा रहे हैं और कोई दल अपने कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने के लिए हिंसक छवियों का इस्तेमाल करने से भी नहीं हिचकता। ऐसा लगता है कि ‘भारत को कब्जे’ में करने का अभियान चल रहा है और सही या गलत हर तरीके से सब अपने इस लक्ष्य को पाना चाहते हैं। यह प्रतीकात्मक हिंसा, नागरिक समाज, मीडिया और राजनीतिक वर्ग के लिए बहुत महंगी साबित होगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।