नई दिल्ली। भारत के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने इच्छामृत्यु की इजाजत दे दी है। अस्पताल में लाइफ सपोर्ट पर जिंदा व्यक्ति ने इच्छा मृत्यु की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने उसकी मांग को सही माना है। पांच न्यायाधीशों की बेंच ने कुछ शर्तों के साथ इच्छा मृत्यु का इजाजत दे दी है। कोर्ट की ओर से यह भी कहा गया कि इस दौरान इच्छा मृत्यु मांगने वाले के सम्मान का ख्याल रखना भी बेहद जरूरी है। इससे पहले तक भारत का कानून इसकी इजाजत नहीं देता था। इच्छा मृत्यु का प्रयास करने वाले व्यक्ति के खिलाफ आईपीसी की धारा 309 के तहत प्रकरण दर्ज किया जाता था।
फैसले में यह भी साफ किया गया कि वसीयत न होने की स्थिति में बीमार व्यक्ति के परिजन हाईकोर्ट में इच्छा मृत्यु की मांग कर सकते हैं। कोर्ट ने कहा कि लाइलाज बीमारी से पीड़ित व्यक्ति ने अगर लिखित वसीयत में कहा है कि उसे उपकरणों के सहारे ज़िंदा नहीं रखा जाए, तो यह वैध होगा। दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा, "बीमार व्यक्ति यह तय कर सकता है कि लाइफ सपोर्ट कब बंद करना है। लाइफ सपोर्ट उसी स्थिति में बंद किया जा सकता है, जब मेडिकल बोर्ड यह घोषित कर दे कि व्यक्ति का इलाज नामुमकिन है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वसीयत का पालन कौन करेगा और इस प्रकार की इच्छा मृत्यु के लिए मेडिकल बोर्ड किस प्रकार हामी भरेगा, इस संबंध में वह पहले ही दिशा-निर्देश जारी कर चुका है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने पिछले साल 11 अक्टूबर को इस याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था। मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आज कल मध्यम वर्ग में वृद्ध लोगों को बोझ समझा जाता है ऐसे में इच्छा मृत्यु में कई दिक्कते हैं। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ये भी सवाल उठाया था कि जब सम्मान से जीने को अधिकार माना जाता है तो क्यों न सम्मान के साथ मरने को भी माना जाए।
इससे पहले साल 2015 में एक फैसला एक गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज की याचिका पर लिया था जिसमें कहा गया था कि एक व्यक्ति जानलेवा बीमारी से पीड़ित हो तो, उसे दिए गए मेडिकल सपोर्ट को हटाकर पीड़ा से मुक्ति दी जानी चाहिए। इसी को पैसिव यूथेनेशिया कहा जाता है।