लखनऊ। गोरखपुर की राजनीति को गहरे तक समझने वाले भाजपा की हार से बहुत हतप्रभ नहीं हैं। उन्हें पता है कि यह हार उसी समय तय हो गई थी, जब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने हेकड़ी दिखाते हुए उपेंद्र दत्त शुक्ल को मठ की मंशा के विपरीत प्रत्याशी घोषित कर दिया। गोरखपुर की जनता भाजपा को वोट नहीं देती है, उसका सम्मान मठ के प्रति होता है। अमित शाह ने मठ का सम्मान किया होता तो जनता भाजपा का भी सम्मान करती। अब सवाल कुछ नए सवाल उठ रहे हैं। क्या मठ योगी आदित्यनाथ का सम्मान नहीं करता। क्या योगी ने मठ को स्वतंत्र कर दिया था। और सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या अमित शाह ने गोरखपुर को योगी आदित्यनाथ के प्रभाव से मुक्त करने की रणनीति बनाई थी।
पत्रकार मनीष अग्रवाल की रिपोर्ट के अनुसार इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गोरखपुर की सियासत ठाकुर बनाम ब्राह्मणों के बीच सिमटी हुई है। दशकों पुरानी लड़ाई सियासत के साथ अपराध जगत में भी लंबे समय से चली आ रही है। दशकों पूर्व जाने-अनजाने शुरू हुआ यह शीत युद्ध मठ की कमान योगी आदित्यनाथ के हाथ में आने के बाद और मजबूत हो गया। जानने वाले बताते हैं कि गोरखनाथ मंदिर के महंथ दिग्विजय नाथ की प्रतिष्ठा थी, लेकिन पंडितों के नेता माने जाने वाले सुरति नारायण त्रिपाठी को यह पसंद नहीं था।
दिग्विजय नाथ को कमजोर करने के प्रयास में सुरति नारायण त्रिपाठी लगातार सक्रिय रहते थे, लेकिन महंत दिग्विजय नाथ के सामाजिक सरोकार तथा मठ की प्रतिष्ठा हमेशा उन पर भारी पड़ती। सुरति नारायण को हर बार मुंह की खानी पड़ती थी। सुरति नारायण त्रिपाठी द्वारा शुरू किए गए इस विरोध के चलते गोरखपुर की सियासी लड़ाई ही ठाकुर बना बाभन हो गई। इसी के चलते महंथ दिग्विजय नाथ सियासत में उतरे तथा निर्दलीय सांसद बनकर अपनी और मठ की ताकत का लोहा मनवाया।
सुरति नारायण त्रिपाठी की शुरू की गई लड़ाई को हरिशंकर तिवारी ने आगे बढ़ाया। इधर ठाकुरों का नेतृत्व वीरेंद्र शाही करने लगे। वीरेंद्र शाही के जिंदा रहते गोरखपुर में ब्राह्मणों का गोल खुद को अक्षम पाने लगा, लिहाजा दुर्दांत अपराधी श्रीप्रकाश शुक्ला के जरिए वीरेंद्र शाही की हत्या करा दी गई। लखनऊ में सुबह टहलने निकले श्री शाही की श्रीप्रकाश ने गोली मारकर हत्या कर दी। बाद में यह लड़ाई तिवारी के ‘हाता’ और अवैद्यनाथ के ‘मठ’ के बीच तब्दील हो गई।
वर्ष 1998 में जब योगी आदित्यनाथ के हाथ में मठ की जिम्मेदारी आई तो फिर हाता का वर्चस्व ही खत्म होने के कगार पर पहुंच गया। योगी ने सामाजिक सरोकारों को मजबूत करते हुए हिंदुत्व के जरिए मठ की ताकत का विस्तार कर दिया। इधर, अपनी औकात से बढ़कर श्रीप्रकाश ने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की हत्या की सुपारी ले ली तो पुलिस ने उसे मौत की नींद सुला दिया। इसके बाद मठ की ताकत और प्रतिष्ठा लगातार बढ़ती चली गई।
गोरखपुर में राजपूत और ब्राह्मणों के वोट लगभग बराबर हैं। योगी आदित्यनाथ की ताकत बढ़ी तो ‘हाता’ कमजोर होता चला गया। इसी दौर में ब्राह्मणों की तरफ से मठ के खिलाफत करने की जिम्मेदारी शिव प्रताप शुक्ल ने उठा ली। योगी आदित्यनाथ के खिलाफ होने के चलते शिव प्रताप शुक्ल को ब्राह्मणों का हर तरह का सहयोग मिलने लगा। योगी आदित्यनाथ को कमजोर करने के लिए कल्याण सरकार में शुक्ला को मंत्री भी बनाया गया, लेकिन शिव प्रताप योगी के साथ मठ का भी विरोध शुरू कर दिया।
शिव प्रताप ने मठ का विरोध करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। मठ का सम्मान करने वाली जनता ने शिव प्रताप को इस स्थिति में पहुंचा दिया कि उनका राजनीतिक करियर ही लगभग खत्म होने के कगार पर पहुंच गया। चार बार गोरखपुर विस सीट से जीतने वाले शिव प्रताप शुक्ला को मठ के विरोध के बाद जीतने के लाले पड़ गए। शुक्ला हाशिए पर पहुंच गए। इधर, योगी आदित्यनाथ और मठ की प्रतिष्ठा लगातार बढ़ती रही। योगी हिंदू युवा वाहिनी के जरिए खुद को तो मजबूत किया ही, हिंदुत्व का झंडा भी बुलंद किया।
पूर्वांचल में हिंदू युवा वाहिनी एक ताकत बन गई। गोरखपुर के साथ आसपास के जिलों में भी योगी ने हिंदुत्व को धार देने का काम किया। एक दौर ऐसा भी आया कि योगी का प्रभाव भाजपा को खटकने लगा। फिर शुरू हुआ मोदी का दौर। लोकसभा में जीत हासिल करने के बाद मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने योगी को घेरने की रणनीति शुरू की। उन्हें कमजोर करने के लिए हाशिए पर जा चुके शिव प्रताप शुक्ला को उनके खिलाफ खड़ा करने के लिए राज्यसभा भेज दिया गया। इतने से भी बात नहीं बनी तो शुक्ला को राज्यमंत्री बना दिया गया। यह इसलिए किया गया ताकि योगी आदित्यनाथ को कमजोर किया जा सके।
वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद मोदी और शाह मनोज सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाने की तैयारी करने लगे, लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने योगी के नाम पर मुहर लगाई। यूपी के कुछ विधायक भी मनोज सिन्हा की बजाय योगी के कद को देखते हुए उन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्ष में लामबंद हो गए। शीर्ष नेतृत्व को मजबूरन योगी को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा, लेकिन साथ में डा. दिनेश शर्मा और केशव प्रसाद मौर्य को उपमुख्यमंत्री बनाकर घेरेबंदी भी कर दी।
इधर, इन सब बातों से बेपरवाह, लगातार मेहनत एवं ईमानदारी से इस जिम्मेदारी का निर्वहन से योगी ने मुख्यमंत्री पद की गरिमा बढ़ानी शुरू कर दी। स्थिति यहां तक आ पहुंची कि टीवी और अखबारों में भी योगी आदित्यनाथ छाने लगे। लोग उनके अंदर पीएम मटेरियल तक देखने लगे। यह खबरें मोदी-शाह को रास नहीं रही थीं। योगी को सीएम बनने से सबसे ज्यादा नाराज ब्राह्मण हुए। मोदी-शाह ने इस वर्ग को खुश करने के लिए हृदय नारायण दीक्षित को विधानसभा अध्यक्ष तथा लुंजपुंज डा. महेंद्रनाथ पांडेय को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया।
गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटें खाली हुई तो योगी ने मठ के किसी को प्रत्याशी बनाए जाने की वकालत की। उन्होंने मठ के हरि प्रकाश मिश्र, दलित कमलनाथ के नामों की वकालत की, लेकिन अमित शाह और सुनील बंसल ने शिव प्रताप शुक्ला के करीबी उपेंद्र दत्त शुक्ल को प्रत्याशी बना दिया। प्रत्याशी की स्थिति यह रही कि चुनाव क्षेत्र में भ्रमण करने की बजाय पीजीआई में भर्ती हो गया। प्रत्याशी के गायब रहने का असर चुनाव पर भी पड़ा। योगी के तमाम प्रयास के बावजूद मठ से बाहर का प्रत्याशी वोटर को रास नहीं आया।
गोरखपुर में योगी की छवि धूमिल करने के लिए भारतीय जनता पार्टी का संगठन भी सक्रिय हो गया। स्थिति यह रही कि कई बूथों पर भाजपा के एजेंट तक मौजूद नहीं थे, जबकि पार्टी माइक्रो मैनेजमेंट का दंभ भरती है। पन्ना प्रमुख बनाकर हर पन्ने के जिम्मेदारी कार्यकर्ता को दी जाती है, लेकिन इस बार के चुनाव में योगी के खिलाफ साजिश रचकर इस तरह व्यूहरचना की गई कि भाजपा के एजेंट और पन्ना प्रमुख निष्क्रिय नजर आए। यह हार योगी की नहीं बल्कि मोदी और अमित शाह के हेकड़ी की है।