राकेश दुबे@प्रतिदिन। महात्मा गाँधी के अमोघ शस्त्र “ उपवास” से खेलकर अन्ना वापिस रालेगन सिद्धि लौट गये है। उनके इस आने-जाने से सबसे ज्यादा निराश वे लोग हुए हैं, जो गरमी, गुरबत और गम बेसब्री से “जन लोकपाल” जैसे किसी चमत्कार की बाट जोह रहे थे। सवाल यह है कि क्या अन्ना एक बार फिर नाकाम हो गए हैं ?
अब की बार रामलीला मैदान में जो हुआ, वह आयोजन नहीं था। जो भी था,अन्ना उसके एक पात्र भर थे। हर आयोजन के मतलब होते हैं। जैसे पिछले आयोजनों के आयोजक उसे हासिल करने में सफल रहे थे । उनमे अरविंद केजरीवाल आज दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं और मनीष सिसौदिया उप-मुख्यमंत्री। तत्कालीन मंच नियंत्रक किरण बेदी पुडुचेरी की उप-राज्यपाल हैं। उन दिनों फौज से ताजा-ताजा निवृत्त हुए जनरल वी के सिंह अब देश के विदेश राज्यमंत्री के पद पर आसीन हैं। ये सब व्यस्त हो गये है, जरूरत से ज्यादा व्यस्त , “राजनीति” क्या होती है इन चारों ने दिखा दी। किसी मजबूरी में स्वयं न आ सकते थे, एक ट्वीट तो कर ही सकते थे, यह भी न हो सका। इसी को राजनीति कहते हैं, जिस “निसैनी” से उपर जाओ उसे लात मारकर गिरा दो। अब कौन भरोसा करेगा इन पर।
“भ्रष्टाचार” से उबी सोशल मीडिया के वे नुमाइंदे भी गायब थे, जो एक काल्पनिक क्रांति की किरदार बने रहना चाहते हैं। तब अन्ना हजारे में उन्होंने न जाने कैसे उसकी झलक पा ली थी। इस बार यह खुमारी भी नहीं दिखी। काश अन्ना ने इस सच को समय रहते समझ लिया होता, तो तमाम सवालों के घेरे में आ जाने से बच जाते, पर वह भी जिद्दी हैं। एक बार फिर अनशन के लिए आ डटे। आयोजन और आंदोलन में यही फर्क होता है। भरोसा न हो, तो रामलीला मैदान के दोनों प्रहसनों पर नजर डाल देखिए, दिमाग का कुहासा छंट जाएगा। आप अन्ना को पसंद करें या नापसंद, पर सार्वजनिक जीवन का लंबा इतिहास उनकी निस्पृहता की गवाही देता है। वह पहले भी करीब आधा दर्जन बार अनशन पर बैठ चुके हैं। हर बार किसान और किसानी उनके आंदोलनों के केंद्र में रहे हैं। देश भर में फैले खेतिहर दुख-दर्दों के बावजूद अन्ना की आस नहीं छोड़तेथे । इसके लिए अगर उन्हें सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर मुंबई पहुंचना होता है, तो वे जाते हैं। उनके पैरों में जूते नहीं होते, तलवे के छाले रिस रहे होते हैं, पर्याप्त रसद पास में नहीं होती, फिर भी वे एक पंक्ति में बढ़ते चले जाते थे। इस बार ऐसा न हो सका।
बस अन्ना के बहाने एक आवाज एक बार फिर देश के सर्वोच्च सत्ता सदन तक पहुंच गई है। सरकार ने जो आश्वासन दिए हैं, उनमें से अधिकांश पूरे हो सकते हैं। प्रधानमंत्री सहित तमाम प्रदेशों के मुख्यमंत्री इनके बारे में अलग-अलग अवसरों पर आश्वासन भी दे चुके हैं। एक बार और सही । अन्ना अबकी बार या तो आना मत और आओ तो उन जैसे को साथ मत लाना जिन्होंने तुम्हें “निसैनी” समझा हुआ है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।