राकेश दुबे@प्रतिदिन। सम्पूर्ण एशिया जिसमें भारत भी शामिल है में बेमौसम बरसात, ठंड, गर्मी, सूखे और भूकम्प आदि ने पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है। ‘वर्ल्ड क्लाइमेट कांफ्रेंस डिक्लेरेशन एंड सपोर्टिंग डाक्युमेंट्स’ के अनुसार प्रौद्योगिकी के व्यापक विस्तार के कारण हवा में कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा तेजी से बढ़ रही है। पूरी दुनिया जिस तरह कथित विकास की दौड़ में अंधी हो चुकी है, उसे देख कर तो यही लगता है कि आज नहीं तो कल मानव सभ्यता के सामने अस्तित्व का संकट खड़ाहो जायेगा। बार-बार आती प्राकृतिक आपदाएं हमे चेतावनी दे रही है कि “संभल जाईये, अब भी समय है और नहीं जागे तो कल कुछ भी नहीं बचने वाला”। सवाल यह है कि क्या हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं या विनाश की शुरुआत हो चुकी है?
कथित विकास की बेहोशी से जगाने के उद्देश्य से ही २२ अप्रैल १९७० से धरती को बचाने की मुहिम अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन द्वारा पृथ्वी दिवस के रूप में शुरू की गई थी। लेकिन वर्तमान में यह दिवस आयोजनों तक सीमित रह गया है। तमाम देशों की जलवायु और मौसम में परिवर्तन हो रहा है। हम भारत की बात करें तो पिछले दो साल में देश के कई इलाकों में कम वर्षा यानी सूखे की वजह से देश के अधिकतर किसान बर्बादी के कगार पर खड़े हैं।
पिछले साल अचानक आई बेमौसम बारिश ने कई राज्यों की कुल पचास लाख हेक्टेयर भूमि में खड़ी फसल बर्बाद कर दी थी। मौसम में तीव्र परिवर्तन हो रहा है, ऋतु चक्र बिगड़ चुका है। मौसम के बिगड़े हुए मिजाज ने देश भर में समस्या पैदा कर दी है। देश में कृषि क्षेत्र में मचे हाहाकार का सीधा संबंध जलवायु परिवर्तन से है। कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है, लेकिन लेकिन पर्यावरण के लिए केंद्र और राज्य सरकारें संजीदा नहीं हैं, या कहें कि यह मुद्दा सरकार और राजनीतिक दलों के एजंडे में ही शामिल नहीं है।
‘वायु प्रदूषण का भारतीय कृषि पर प्रभाव’ शीर्षक से ‘प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस’ में प्रकाशित एक शोधपत्र के नतीजों ने सरकार, कृषि विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है। शोध के अनुसार, भारत के अनाज उत्पादन में वायु प्रदूषण का सीधा और नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है। देश में धुएं में बढ़ोतरी की वजह से अनाज के लक्षित उत्पादन में कमी देखी जा रही है। करीब तीस सालों के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए वैज्ञानिकों ने एक ऐसा सांख्यिकीय मॉडल विकसित किया जिससे यह अंदाजा मिलता है कि घनी आबादी वाले राज्यों में वर्ष २०१० के मुकाबले वायु प्रदूषण की वजह से गेहूं की पैदावार पचास फीसद से कम रही। नदियाँ सूख रही है | कुछ ठोस करने की दरकार है |
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।