राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारतीय लोकतंत्र के सामने कुछ बड़े सवाल संसद सत्र के न चलने देने से खड़े हो गये है। जैसे, क्या सदन को बार-बार स्थगित करना ही विरोध और असहमति को व्यक्त करने का तरीका है ? क्या धरना-प्रदर्शन, संसद के अंदर बहस और विरोध की अभिव्यक्ति का पर्याय होते जा रहे हैं ? कई वरिष्ठ सांसद इस सबसे ऊब चुके हैं, वे संसद से इस्तीफा देना चाहते हैं। एक बड़ा प्रश्न विकल्प के रूप में उभरता है, क्या संसद के कामकाज में व्यवधान डालने वाले सांसदों की सदस्यता रद्द करने पर विचार होना चाहिए ?
भारत में संसद वर्ष में तीन बार राष्ट्रपति द्वारा आहूत की जाती है, पर विश्व की कुछ प्रमुख संसदों की तुलना में देखें, तो भारतीय संसद की औसत वार्षिक बैठकों और कार्यवाही का समय बहुत कम है। इंग्लैंड की प्रतिनिधि सभा औसतन वर्ष में १४० दिन, १६७० घंटे, अमेरिका में १३६ दिन, २००० घंटे, ऑस्ट्रेलिया में ६४ दिन, ६२६ घंटे काम करती है, जबकि भारत में ६४ दिन, ३३७ घंटे काम होता है। पिछली अर्थात पंद्रहवीं लोकसभा की कुल ३५७ बैठकें हुईं और केवल १३४४ घंटे सदन बैठा, जिसमें ८९१ घंटे अवरोध और स्थगन के कारण खराब हुए। वर्तमान सत्र में तो टकराव व अवरोध के कारण मंत्रिमंडल में अविश्वास के प्रस्ताव पर चर्चा को अध्यक्ष ने यह कहकर अस्वीकृत कर दिया कि सदन व्यवस्थित नहीं है, तो दूसरी ओर अव्यवस्था और शोर-शराबे के बीच कई विधेयक और वर्ष २०१८-१९ का बजट बिना चर्चा के ही पारित कर दिए गए।
निरंतर अवरोध और सदन के बार-बार स्थगन से संसद की कितनी कार्य-क्षमता क्षीण होती है, छवि धूमिल और संसदीय लोकतंत्र की अवधारणा का ह्रास होता है, इसका मौद्रिक आकलन नहीं हो सकता। अवरोध और लगातार स्थगन दर्शाते हैं कि ऐसे सांसदों का विश्वास बहस में कम, और संसद के भीतर धरना देने में ज्यादा है। संसद में देश की ज्वलंत समस्याओं, जनता की आशाओं और अपेक्षाओं पर चर्चा होनी चाहिए, ताकि उनका यथासंभव निराकरण हो सके, कार्यपालिका की स्वच्छंदता पर अंकुश रहे और सरकार संसद और जनता के प्रति जवाबदेह रहे। जनता अपने प्रतिनिधि इस आशय से चुनती है कि संसद में सुचिंतित बहस हो, सांसद अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें, ताकि अच्छे कानून बनें। कई बार वरिष्ठ सांसद ऐसी आपत्तिजनक, गैर-संसदीय और असांविधानिक व्यवहार पर अपना रोष प्रकट कर चुके हैं। वयोवृद्ध लालकृष्ण अडवाणी ने तो इसी लोकसभा में क्षुब्ध होकर कहा था कि उनका ‘इस्तीफा देने का मन करता है’।
सत्ता पक्ष का भी उत्तरदायित्व है कि सदन के बाहर भी प्रतिपक्ष से संवाद के मार्ग खुले रखे, संवाद की पहल करे, विश्वास और समन्वय बनाए और ‘को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म’ के सिद्धांत का पालन करते हुए क्षेत्रीय दलों और विपक्ष का सहयोग प्राप्त करे। संसद में वाद-विवाद हो, सारगर्भित रचनात्मक चर्चा हो और सुस्थापित नियमों के अनुसार संसद की कार्यवाही चले। अध्यक्षीय आसंदी सबको विश्वास में लेकर चले, तब ही कुछ सार्थक होगा। अन्यथा वरिष्ठ सांसद संसदीय कार्यवाही से विमुख होंगे और नवोदित सांसद हंगामें की अलावा कुछ सीख नहीं सकेंगे। यह सब प्रजातंत्र के लिए ठीक नहीं है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।