राकेश दुबे@प्रतिदिन। किसी भी अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता में खिलाडी से ज्यादा चिंता किसकी हो ? विशेष कर भारतीय सन्दर्भों में यह सवाल ऑस्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट में चल रहे COMMONWEALTH GAMES में भी हमेशा की तरह खड़ा है। फिर से वही कहानी इस बार भी वही सामने आई है, जिसके लिए भारत बदनाम रहा है। देश को अब तक हासिल चारों मेडल वेटलिफ्टिंग में मिले हैं। मीरा बाई चानू और पी गुरुराजा ने क्रमश: गोल्ड और सिल्वर पदक जीतने के बाद अपना जो अनुभव बताया वह भारतीय खेल प्रबंधन से जुड़ी संस्थाओं और संगठनों को सवालों के कठघरे में खड़ा करने वाला है। इस प्रतियोगिता के दौरान इन एथलीटों को अपने फिजियोथेरपिस्ट का कोई सहयोग नहीं मिल सका। गुरुराजा मल्टिपल इंजरी से जूझ रहे थे। उनका फिजियो प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा था, मगर समुचित कैटिगरी में अक्रेडिटेशन न होने के कारण वह वार्मअप एरिया में नहीं पहुंच पाया। चानू भी ऐसी ही कठिनाइयों से जूझते हुए जैसे-तैसे अन्य टीम मेंबरों के सहयोग से खुद को फिट रखने की कोशिश करती रहीं। इस पर जो स्पष्टीकरण आये हैं वे भी कम जोरदार नहीं है।
दिलचस्प बात यह है कि इसके बाद इंडियन ओलिंपिक असोसिएशन (आईओए) और इंडियन वेटलिफ्टिंग फेडरेशन (आईडब्ल्यूएफ) के बीच परस्पर दोषारोपण का खेल शुरू हो गया। आईओए का कहना है कि आईडब्ल्यूएफ ने फिजियो का नाम देने में बहुत देर कर दी, जबकि आईडब्ल्यूएफ का कहना है कि आईओए के लोग अफसरों के रिश्तेदारों के लिए सुविधाएं सुनिश्चित करने में इतने व्यस्त थे कि उन्हें एथलीटों की जरूरतों का ध्यान रखने की फुरसत ही नहीं मिली। वैसे यह शिकायत कोई पहली बार नहीं सुनने को मिली है। भारतीय डेलीगेशन में नेताओं, अफसरों और उनके नजदीकियों की तादाद इतनी ज्यादा हो जाती है कि सपोर्टिंग स्टाफ के लिए जगह ही नहीं बचती है। यह सब इसके बाद हो रहा है जब खेल मंत्रालय ने इस बार निर्देश दे रखा था कि भारतीय प्रतिनिधिमंडल में अफसरों की संख्या एथलीटों की कुल संख्या के एक तिहाई से ज्यादा नहीं होगी। अफसरों ने इस आदेश का तोड़ यह निकाल लिया गया कि रिश्तेदारों को अपने किराये पर ले जाकर उन्हें खेल गांव में ठहरा दिया गया। इसके चलते एथलीटों का सपोर्टिंग स्टाफ गोल्ड कोस्ट पहुंचकर भी उनके साथ नहीं रह सका है।
इस बार आयोजन शुरू होने के ठीक पहले उठे सिरिंज विवाद के दौरान यह बात सामने आई कि ३२७ सदस्यीय भारतीय प्रतिनिधि मंडल में सिर्फ २ डॉक्टर हैं और उनमें भी एक चीफ मेडिकल ऑफिसर है, जिसके जिम्मे प्रशासनिक कार्य ज्यादा है। इसमें कोई शक नहीं कि अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजनों को लेकर सरकार का रुख पहले से ज्यादा प्रो-एक्टिव है, लेकिन खेल मंत्रालय को अपनी भूमिका खेल संगठनों और संस्थाओं के लिए निर्देश जारी करने तक सीमित नहीं रखनी चाहिए। गोल्ड कोस्ट से चल रही इस आपाधापी और बेईमानी से उसे यह सबक लेना चाहिए कि टोक्यो ओलिंपिक में क्या-क्या न होने दिया जाए? देश के लिए खिलाडी, उनकी प्रवीणता, और मेडल जरूरी है। खेल की आड़ में चलते ये गंदे खेल बंद होना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।