लखनऊ। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(बी) के तहत सहमति से तलाक की डिक्री के खिलाफ सामान्यत: अपील नहीं दाखिल की जा सकती परंतु इलाहबाद हाईकोर्ट ने ऐसी एक अपील को स्वीकार करते हुए कहा कि यदि सहमति में संदेह है तो अपील पर विचार किया जाना चाहिए। हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि परिवार न्यायालय की जिम्मेदारी है कि वह सहमति की जांच करे। संबंधित याचिका में पीड़िता का कहना था कि उसके पति ने दवाब डालकर सहमति के कागजों पर हस्ताक्षर करवा लिए थे। जब हस्ताक्षर करवाए गए वो पति के घर में ही थी। अत: इसे सहमति नहीं माना जाना चाहिए।
आगरा निवासी पूजा की अपील स्वीकार करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति राजीव जोशी ने अपीलार्थी के पति को नोटिस जारी कर अपना पक्ष रखने के लिए कहा है। कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(बी) के तहत सहमति से तलाक की डिक्री के खिलाफ सामान्यत: अपील नहीं दाखिल की जा सकती है, मगर जब इसमें सहमति को लेकर ही विवाद हो, यह संदेह पैदा हो जाए कि सहमति स्वेच्छा से नहीं दी गई तो चीजें बदल जाती हैं।
ऐसे मामले की सुनवाई कर रहे न्यायालय की जिम्मेदारी है कि तलाक की डिक्री देने से पूर्व इस बात की जांच करे कि सहमति स्वेच्छा से बिना किसी दबाव के दी गई है। न्यायालय को अपने संतुष्ट होने का कारण रिकार्ड करना चाहिए। ताकि सहमति से तलाक देने के इस कानून का दुरुपयोग रोका जा सके।
मामले के अनुसार अपीलार्थी पूजा और उसके पति ने आगरा परिवार न्यायालय में सहमति से तलाक की डिक्री के लिए याचिका दाखिल की थी। परिवार न्यायालय ने इस अर्जी पर तलाक की डिक्री दे दी। याची के वकील अंजनी कुमार दुबे का कहना था कि याची अपने पति के घर में ही थी। इसका लाभ उठा कर उस पर दबाव डाल कर सहमति के कागजों पर हस्ताक्षर करा लिए गए। याची ने दबाव में सहमति दी है न कि स्वेच्छा से।