नई दिल्ली। अगर चुनाव से पहले तेल की कीमतें स्थित कर देने से भाजपा को कर्नाटक में फायदा हुआ है तो अब तेजी से चल रही बढ़ौत्तरी का नुक्सान भी 3 राज्यों के चुनाव में होगा। मध्यसप्रदेश सहित राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इसी साल चुनाव हैं। अगर तेल की कीमतें ऐसे ही बढ़ती रहीं तो बीजेपी को राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। मिडिल क्लास में काफी नाराजगी है। मध्यप्रदेश में सीएम शिवराज सिंह अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हैं। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के टूट जाने के बाद रमन सिंह के हौंसले भी बुलंद हैं और राजस्थान में वसुंधरा राजे को उम्मीद है कि अमित शाह चुनाव आते आते पूरी भाजपा को उनके लिए एकजुट कर लेंगे। तीनों मुख्यमंत्री अपना हर फैसला चुनाव को ध्यान में लेकर कर रहे हैं परंतु पेट्रोल की कीमतें तीनों के लिए नया संकट हैं। मध्यप्रदेश में तो पेट्रोल पर 55 प्रतिशत से ज्यादा टैक्स लगाया जा रहा है।
2018 से पहले सरकार की चिंता
2014 में मोदी सरकार ने पेट्रोल के दामों को लेकर मनमोहन सिंह सरकार पर कई हमले किए थे। अब विधानसभा चुनाव के दौर में तेल की कीमतें बढ़ रहीं हैं। सरकार के लिए चिंता की बात यह है कि उसे ऐसे समय में आर्थिक विकास को पटरी पर रखने के साथ-साथ सामाजिक योजनाओं पर खर्चे को भी बढ़ाना है।
मोदी के सामने है नई चुनौती
तेल की कीमतें बढ़ने से मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होता है और ग्राहकों की मांग घटती है। इसके अलावा कॉर्पोरेट प्रॉफिट मार्जिन्स घटता है और निवेश भी प्रभावित होता है। मौजूदा हालात में मोदी को कर्नाटक के बाद अब पेट्रोल पंपों पर सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना है। नजदीक आते जा रहे 3 राज्यों के विधानसभा चुनाव के लिए तैयार हो रही सरकार के लिए यह हालात चिंताजनक है कि लोग ईंधन और सामानों के लिए ज्यादा खर्च करने को मजबूर हो रहे हैं।
क्या कहते हैं पेट्रोलियम मंत्री?
पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का कहना है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स घटाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। केंद्र जितना कम कर सकता था कर चुका है। बता दें कि 2014 से अब तक केंद्र ने 9 बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई जबकि सिर्फ 1 बार घटाई है। इधर मध्यप्रदेश में वैट टैक्स के अलावा शिवराज सरकार का फिक्स टैक्स भी वसूला जा रहा है। इसके अलवा सेस भी ठोक रखा है। मई 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के एक साल के भीतर क्रूड ऑइल की कीमतें 113 डॉलर प्रति बैरल से घटकर 50 डॉलर पर आ गई थीं। वित्तीय घाटे और सोशल सेक्टर के खर्चे को मैनेज करने के लिए संघर्ष कर रही सरकार के लिए यह एक गिफ्ट की तरह था लेकिन सरकार ने इसका फायदा नहीं उठाया।