राकेश दुबे@प्रतिदिन। वोट बैंक के चक्कर में नागरिकता कानून में बदलाव की बात ही पूर्वोत्तर में एक समस्या का रूप लेती जा रही है। असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने इस मसले पर इस्तीफे तक की धमकी दे दी है। मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड के. संगमा की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में इसका विरोध करने का निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया है। बीजेपी के सहयोगी दल असम गण परिषद ने कहा है कि केंद्र सरकार नागरिकता के प्रावधानों में जो संशोधन कर रही है, वह असम समझौते की मूल भावना के खिलाफ है। मूल बात 1971 के बाद आए सभी शरणार्थियों को वापस भेजने की जिसका निर्णय भी हुआ था। अब केंद्र सरकार की रुचि सिर्फ मुस्लिम शरणार्थियों को वापस भेजने में है। बाकियों को वह अपने वोट बैंक के रूप में देखती है इसलिए उन्हें बसाए रखना चाहती है। उसकी यह मंशा कई राज्यों में यहां तक कि पड़ोसी देशों में भी भारी संकट पैदा कर सकती है।
नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 से संबंधित संयुक्त संसदीय समिति ने इस पर लोगों की राय जानने के लिए नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों का दौरा किया और उसके बाद से ही इसका जबरदस्त विरोध शुरू हो गया है। गौरतलब है कि नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 को लोकसभा में ‘नागरिकता अधिनियम’ 1995 में बदलाव के लिए लाया गया है। केंद्र सरकार ने इस विधेयक के जरिए अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैन, पारसियों और ईसाइयों को बिना वैध दस्तावेज के भारतीय नागरिकता देने का प्रस्ताव रखा है। सरकार ने इसके लिए उनके निवास काल को 11 वर्ष से घटाकर छह वर्ष कर दिया गया है। यानी अब ये शरणार्थी ६ साल बाद ही भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं। भारत का वर्तमान नागरिकता कानून भारतीय नागरिकता चाहने वालों में धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता और किसी को अलग से रियायत भी नहीं देता। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर खड़ी है।
नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 में भारत को सभी हिंदुओं की मातृभूमि माना गया है। यह बात हमारे संविधान की मूल अवधारणा से मेल नहीं खाती। यह सही है कि कई राज्यों के लिए विदेशी बनाम स्थानीय नागरिकों का प्रश्न सामाजिक उथल-पुथल का कारण बना हुआ है। बांग्लादेश से बड़ी संख्या में शरणार्थी आकर असम में बस गए हैं। 1980 के दशक में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) की अगुआई में हुए छात्रों के आंदोलन में यह मुद्दा बड़े पैमाने पर उठा। आखिरकार 2005 में केंद्र, राज्य सरकार और आसू के बीच असमी नागरिकों का कानूनी दस्तावेजीकरण करने के मुद्दे पर सहमति बनी और अदालत के हस्तक्षेप से इसका एक व्यवस्थित रूप सामने आया।
इसके बावजूद इस समस्या का कोई हल नहीं निकला। भारतीय नागरिकता का सवाल वही का वही खड़ा है। इसे बिना किसी भेद के हल करने की अपनी समस्या और इस तरह के निदान उससे बड़ी समस्या। सरकार को नीति स्पष्ट करनी चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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