
इस सरकार की शुरुआती नीतियों से हालात जरूर संभले, लेकिन मौजूदा दिक्कतों की बुनियाद भी तभी पड़ गई। शायद प्रधानमंत्री मोदी वृहद आर्थिक हालात को महंगाई नियंत्रित करने और भुगतान संकट से बचने के दोहरे लक्ष्य से ही जोड़कर देखते हैं। उन्होंने 2016 में वित्त मंत्रालय और आरबीआई को जो निर्देश दिए थे, उनमें बाद में परिस्थितियों के हिसाब से संशोधन की जरूरत थी, परन्तु वे ऐसा नहीं कर पाए। संभवत: मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए उन्होंने नवंबर में 500 और 1000 रुपये के नोट चलन से बाहर कर दिए, जिससे अर्थव्यवस्था की गति और सुस्त हो गई। यह गलत था।
नोटबंदी के झटके से बाहर निकलने में देश की अर्थव्यवस्था ने पूरा२ 017 ले लिया। हालांकि अब हालात सुधरने शुरू हो गए हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक अब इस बात पर एकमत हैं कि 2018 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी? यह अनुमान है।
सूक्ष्म आर्थिक हालात को लेकर इस सरकार का नजरिया गैर-राजनीतिक रहा है। इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि बाजार को पहले के मुकाबले अधिक स्वतंत्रता दी गई। इन सूक्ष्म आर्थिक नीतियों के परिणाम कुछ समय बाद दिखेंगे, लेकिन वृहद आर्थिक स्तर (कम राजकोषीय घाटा, ऊंची ब्याज दरें और रुपये की मौजूदा हालत) पर सरकार जो स्थितियां पैदा की हैं, उनका तात्कालिक असर निवेश पर दिख रहा है। इस मुद्दे पर कुछ न होना गंभीर संकट की चेतावनी है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।