राकेश दुबे@प्रतिदिन। जब यह केंद्र सरकार बनी थी तब सरकार और प्रधानमंत्री मोदी के सामने दो आर्थिक चुनौतियां थीं। सबसे पहली चुनौती महंगाई की थी, जिसके गंभीर राजनीतिक परिणाम होते हैं। दूसरी अहम चुनौती विदेशी मुद्रा भंडार से जुड़ी थी, जिसे लेकर भारतीय जनता पार्टी हमेशा गंभीर रही है। हालांकि, महंगाई पिछले ऊंचे स्तरों से जरूर नीचे आ गई थी, लेकिन मुश्किलें फिर भी कम नहीं हुई थीं, क्योंकि 2009 के बाद खाद्य वस्तुओं की कीमतें 65 प्रतिशत तक चढ़ चुकी थीं। विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खाली हो चुका था और 1991 जैसे गंभीर आर्थिक हालात दिखाई दे रहे थे। तब मोदी सरकार ने तीन सामान्य निर्देश जारी किए थे। सबसे पहले उन्होंने वित्त मंत्रालय को किसी भी कीमत पर राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने की हिदायत थमा दी। दो अन्य निर्देश भारतीय रिजर्व बैंक को दिए गए। जिनमे केंद्रीय बैंक को महंगाई कम करने के सभी उपाय करने और भुगतान संकट से पूरी तरह बचने को शामिल थे।
इस सरकार की शुरुआती नीतियों से हालात जरूर संभले, लेकिन मौजूदा दिक्कतों की बुनियाद भी तभी पड़ गई। शायद प्रधानमंत्री मोदी वृहद आर्थिक हालात को महंगाई नियंत्रित करने और भुगतान संकट से बचने के दोहरे लक्ष्य से ही जोड़कर देखते हैं। उन्होंने 2016 में वित्त मंत्रालय और आरबीआई को जो निर्देश दिए थे, उनमें बाद में परिस्थितियों के हिसाब से संशोधन की जरूरत थी, परन्तु वे ऐसा नहीं कर पाए। संभवत: मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए उन्होंने नवंबर में 500 और 1000 रुपये के नोट चलन से बाहर कर दिए, जिससे अर्थव्यवस्था की गति और सुस्त हो गई। यह गलत था।
नोटबंदी के झटके से बाहर निकलने में देश की अर्थव्यवस्था ने पूरा२ 017 ले लिया। हालांकि अब हालात सुधरने शुरू हो गए हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक अब इस बात पर एकमत हैं कि 2018 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी? यह अनुमान है।
सूक्ष्म आर्थिक हालात को लेकर इस सरकार का नजरिया गैर-राजनीतिक रहा है। इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि बाजार को पहले के मुकाबले अधिक स्वतंत्रता दी गई। इन सूक्ष्म आर्थिक नीतियों के परिणाम कुछ समय बाद दिखेंगे, लेकिन वृहद आर्थिक स्तर (कम राजकोषीय घाटा, ऊंची ब्याज दरें और रुपये की मौजूदा हालत) पर सरकार जो स्थितियां पैदा की हैं, उनका तात्कालिक असर निवेश पर दिख रहा है। इस मुद्दे पर कुछ न होना गंभीर संकट की चेतावनी है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।