राकेश दुबे@प्रतिदिन। कर्नाटक की नई सरकार कौन बनाये यह मामला राजभवन से हटकर सर्वोच्च न्यायलय तक गया, जैसे तैसे एक रास्ता निकला, तो अब राज्यपाल द्वारा बनाये गये प्रोटेम स्पीकर का मामला कांग्रेस सर्वोच्च अदालत में ले गई है। राज भवन का विवेक हमेशा की तरह सवालिया निशान की जद में आ गया है। इस घटना और देश में पहली घटित घटनाओं से जो दृश्य सामने आता है वह राजभवनों ने निर्णय और उनके विवेक पर प्रश्न चिन्ह के साथ यह भी सवाल खड़ा करता है की हर बात का निर्णय जब सर्वोच्च न्यायालय से ही कराना है तो राजभवन की जरूरत ही क्यों ? वैसे भी अनेक बार राज्यपाल संस्था पर प्रश्नचिंह खड़े किये जाते रहे हैं।
इस बार मामला कुछ अलहदा है, राजभवन द्वारा दिए गये निर्णयों की विसंगति और बाद में न्यायलय द्वारा उन्हें निरस्त करने का इतिहास भी मौजूद है। कर्नाटक के वर्तमान राज्यपाल भी पूर्व में ऐसे ही मामले को भोग चुके हैं। वर्ष 1996 में स्व. कृष्णपाल सिंह गुजरात के राज्यपाल थे। गुजरात में भाजपा शासित सुरेश मेहता सरकार को विश्वास का मत हासिल करना था। विधानसभा के फ्लोर पर विश्वास का मत हासिल करने के बावजूद राज्यपाल ने गुजरात विधानसभा भंग कर दिया और तत्कालीन एच डी देवेगौड़ा की सरकार ने उस पर मोहर लगाकर गुजरात में राष्ट्रपति शासन की घोषणा करवा दी थी। कर्नाटक के वर्तमान राज्यपाल वजुभाई वाला तत्कालीन गुजरात प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष थे । संयोग देखिए, आज 22 साल बाद दोनों किरदार वही हैं । वही वजुभाई वाला हैं और वही एच डी देवेगौड़ा की पार्टी है। कुमारस्वामी को आज राजभवन से न्याय की उम्मीद थी। इस जगह पर प्रश्न पूर्वाग्रह का भी उपस्थित होता है।
राज्यपाल के निर्णय पूर्वाग्रहों से मुक्त हों, ऐसी अपेक्षा सब करते हैं पर ऐसा होता नहीं। राज्यपाल अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि से मुक्त नहीं हो पाते और उनके पीठ पर किसी एक पक्ष का ठप्पा लग जाता है। उदाहरण इसी कर्नाटक से निकलता है। श्री हंसराज भारद्वाज वर्ष 2009 मे कर्नाटक के राज्यपाल थे। पूर्ण बहुमत वाली तत्कालीन येदुरप्पा सरकार को बर्खास्त कर दिया था। तब उन्होंने येदियुरप्पा पर गलत तरीके से बहुमत साबित करने का आरोप लगाया था। येदुरप्पा और हंसराज भरद्वाज की राजनीतिक पृष्ठभूमि जग जाहिर है इसी प्रकार 2005 मे बूटा सिंह ने बिहार विधानसभा भंग कर दिया था। जबकि एनडीए सरकार बनाने के निमंत्रण का इंतजार कर रही थी। बाद में कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक घोषित किया था।
मुख्यमंत्री बनाने में राज्यपालों की भूमिका भी चर्चा में रही है जैसे सैयद सिब्ते रजी ने 2005 मे झारखंड में बिना बहुमत शिबू शोरेन को मुख्यमंत्री बना दिया। नौ दिन बाद बहुमत के अभाव में शिबू सोरेन को इस्तीफा देना पड़ा और अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में एनडीए ने सरकार बनाई। इसी तरह रोमेश भंडारी ने 1998 में उ.प्र. की कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर जगदम्बिका पाल को 2 दिन का मुख्यमंत्री बनाया। कोर्ट ने फैसले को असंवैधानिक करार दिया, फिर कल्याण सिंह ने दोबारा सरकार बनाई थी। 1982 में जीडी तापसे ने हरियाणा की देवीलाल सरकार को हटाकर भजनलाल की सरकार बनवा दिया था।
राज्यपाल पी वेंकटसुबैया के फैसले के बगैर बात पूरी नहीं होती 1988 में बोम्मई की सरकार को विधानसभा में बहुमत खो चुकी है कहकर सरकार बर्खास्त कर दिया, न्यायालय ने इस फैसले को असंवैधानिंक घोषित किया और बोम्मई ने फिर से सरकार बनाई।
राजभवनों के निर्णय कैसे हो ? हर राजनीतिक निर्णय में राजनीतिक दलों न्यायालयीन आदेश की अपेक्षा का यह चलन राज्यपाल जैसी संस्थाओं को प्रश्नचिंह की जद में खड़ा करता है। देश में अब खंडित जनादेश आयेंगे ही, ऐसे में राजभवन के निर्णय विधि सम्मत हो इस पर विचार जरूरी है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।