राकेश दुबे@प्रतिदिन। कर्नाटक में नाटक का एक अध्याय समाप्त हुआ। 55 घंटे के मुख्यमंत्री का ख़िताब लेकर येदुरप्पा रवाना हो गये, अब सोमवार से कुमारस्वामी अपनी पारी खेलेंगे। यह पारी कितनी छोटी-कितनी लम्बी और प्रजातंत्र एवं जनहित के मापदन्डों पर कितनी खरी होगी, इसे लेकर अभी से सवाल और बवाल, दोनों खड़े किये जाने लगे हैं। अब बात ईवीएम सेटिंग और गवर्नर सेटिंग से आगे निकल गई है और ऐसा लगने लगा है कि “लोकतंत्र की आबरू से लोकतान्त्रिक तरीकों से खिलवाड़ किया जा रहा है। यह लोकतंत्र के लिए कहीं से भी शुभ नहीं है।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद की स्थिति में भाजपा को पता था कि उस विशिष्ट दिन उसके खाते में बहुमत नहीं है। यह बात राज्यपाल भी जानते थे। भाजपा और राज्यपाल दोनों यह बात भी जानते ही हैं कि संख्यागत बहुमत कांग्रेस व जद के पास है। परंतु वे गोवा में सिरदर्द होने पर अलग दवाई खाते हैं और कर्नाटक में सिरदर्द पर अलग। गोवा में सरकार बनाने को लेकर एक न्यायिक निर्णय भी हमारे सामने है लेकिन वही निर्णय कर्नाटक के लिए नजीर नहीं हो सकता। मणिपुर में भाजपा स्वयं को ठीक बताती है और कर्नाटक में कांग्रेस को गलत।
यह स्थिति इसके ठीक उलट भी हो सकती थी। भारतीय राजनीति जबरदस्त डर के दौर से गुजर रही है। यहां के राजनीतिक दल बिना सत्ता के स्वयं को अनाथ मानने लगते हैं। राजनीति और सत्ता जैसे एकाकार और एकरूप हो गए हैं। क्या संभव था कि राजभवन के विचित्र निर्णय के विरोध में कांग्रेस और जद के विधायक यह कहने का साहस करते कि “जब तक यह निर्णय वापिस नहीं लिया जाता, हमारे विधायक विधानसभा में शपथ नहीं लेंगे।“
यहाँ महात्मा गाँधी का चम्पारण का वक्तव्य याद आता है “मैंने आपके दिए आदेश को तोड़ा, वह कानून की सत्ता की अवमानना के लिए नहीं, बल्कि उससे भी श्रेष्ठ (कानून) यानी अंत:करण का कानून मानूं, इसलिए यही बताने के लिए यह निवेदन कर रहा हूं।'' किसी में इतना साहस नहीं है कि वे उस गलत आदेश के विरुद्ध बोलते या अब स्थापित होने जा रही गलत परम्परा के खिलाफ खड़े हों। सबको शपथ की जल्दी थी, अंत:करण की आवाज से ज्यादा, पेंशन की सुरक्षा लक्ष्य था।
मुण्डकोपनिषद में एक अनूठा शब्द प्रयोग में आया है, ''मध्यदीपिकान्याय। इसका अर्थ है- देहरी पर दीपक रखने से उसका प्रकाश भीतर-बाहर दोनों ओर पड़ता है। इसी को मध्यदीपिका या देहरी दीपन्याय कहते हैं। सारी व्यवस्था फिर चाहे वह सामाजिक हो या राजनीतिक, आर्थिक हो या न्यायिक, उसे मध्यदीपिका न्याय की तरह ही होना चाहिए जिससे कि वह संस्थान या संस्था और लाभार्थी दोनों ही लाभान्वित हो सकें। वर्तमान बेहद त्रासदायी है कि हमारा समूचा तंत्र और एक हद तक समाज का बहुतांश दिये की रोशनी को भीतर ही सीमित कर लेना चाहता है। वह समस्त क्रियाओं से केवल स्वयं को लाभान्वित करते रहना चाहता है। भारतीय समाज पहले से ही राजनैतिक दिवालियापन, आर्थिक संकट और कट्टरता से त्रस्त है, बार-बार न्यायपालिका पर निर्भरता पूरे समाज और प्रजातांत्रिक परपराओं पर कुठाराघात है | ऐसे में अगर न्यायपालिका अपने आपको सार्वजनिक निरीक्षण और जवाबदेही से मुक्त कर ले तो क्या होगा ? भारतीय लोकतंत्र का एक और स्तंभ ढह जाएगा। अभी यह चरमराया भर है और इसे साधा जा सकता है।
आज की स्थितियां कई मायनों में आपातकाल से भी ज्यादा बदतर है। अघोषित आपातकाल घोषित से ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो रहा है भारतीय लोकतंत्र के लिए। हिंसा, सांप्रदायिकता और राजनीतिक भाई भतीजावाद अब तक के चरम पर है। भविष्य तो हमेशा छुपा ही रहता है। सभी ओर घनघोर अंधेरा दिखता है|
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।