राकेश दुबे@प्रतिदिन। कर्नाटक चुनावों में नेताओं के भाषण, गरिमा के एक और निचले पायदान पर खिसक गये। उपमा के प्रतिमान अब कौवे-कुत्ते तक उतर आये। मालूम नहीं ऐसे में कैसा देश शेष बचेगा। चुनाव और भाषण का चोली-दामन का साथ है, ये लम्बे समय तक याद रहते हैं। एक समय देश में ये चुनावी भाषण परिणामों का निर्धारण करते थे। इन भाषणों से गरिमा और ज्ञान झलकता था। पुराने संदर्भो में ये भाषण आज भी मौजूद है, देश के वर्तमान कर्णधार कभी एक बार इन्हें पलटने की जहमत उठायें।
जैसे महात्मा गांधी के भाषणों में भारतीय परंपरा के सांस्कृतिक पाठों, जैसे गीता, बुद्ध और रामायण की ध्वनि तो थी ही, गुजराती संत नरसी मेहता की वाणी साफ दिखती थी। कर्म आधारित जीवन की लय उनके भाषणों और संवादों का मूल थी। उनके भाषण भारतीय संस्कृति को औपनिवेशिक संस्कृति के विकल्प के रूप में पेश करते थे और इसी से उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन की नींव रखी।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के भाषणों का मूल आधार आधुनिक भारत का उनका विचार था। भारत का सामाजिक इतिहास और उसके विविध स्तर नेहरू के भाषणों को स्वर देते थे। तत्समय राम मनोहर लोहिया जर्मनी से उच्च शिक्षा ग्रहण करके लौटे थे। जर्मन ज्ञान की वाद-विवाद शैली उनके भाषणों को तराशती थी। रामाय की भाषिकता और संवाद भी उनके भाषणों में साफ सुने जा सकते थे।
सामाजिक पाठ और तेवरों के साथ तत्समय इंदिरा गांधी ने अपने भाषणों को जनता से जोड़ा था। इंदिरा गांधी की विरोधी विचारधारा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक भाषण शैली को अगर हम ध्यान से सुनें, तो उनमें आजादी के बाद के महत्वपूर्ण हिंदी कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित महाकाव्य रश्मिरथी की अनुगूंज सुनाई पड़ती है।
कई बार लगता है कि शिवमंगल सिंह सुमन की कविताएं भी सांस्कृतिक पाठ के रूप में उनके संवाद में खड़ी है। लालू प्रसाद यादव अपनी भाषण कला के कारण बिहार के काफी लोकप्रिय नेताओं में शुमार किए जाते हैं। उनकी भाषण शैली प्रसिद्ध रेडियो नाटक लोहासिंह से प्रभावित है। यह रेडियो नाटक पटना आकाशवाणी से लगभग 400 एपिसोड में प्रसारित हुआ था। दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु के नेताओं के भाषणों में कई बार, संगम साहित्य, की छवियां दिखती हैं और ध्वनियां गूंजती हैं। वही बंगाल के नेताओं के भाषणों में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के गीतात्मक काव्यों की ध्वनियों का गूंजना आम बात है।
बदलते कालचक्र के क्रम में पहले इलेक्ट्रानिक मीडिया का युग आया, और फिर मोबाइल, लैपटॉप, सोशल साइट्स का समय आया। नेताओं के बोल बिगड़ने लगे, हालांकि ट्विटर, फेसबुक वगैरह ने राजनीतिक संवाद के लिए एक नया और बड़ा मंच दिया। टीवी बहस के जुमले नेताओं के भाषणों में छाने लगे। अब मुहावरों, कटाक्ष और उपमा के प्रतिमान बदल रहे हैं। स्तर गिर रहा है अब कौवे कुत्ते जैसे प्रतिमान भाषण में समाहित होने लगे हैं। क्या सही है और क्या गलत इसका निर्णय भाषण के बाद सोशल मीडिया की अदालत में होता है। क्या यह वर्तमान नेताओं के विवेक पर प्रश्न चिन्ह नहीं हैं ?
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।