राकेश दुबे@प्रतिदिन। विश्व की उभरती आर्थिक शक्ति भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का मनोबल गिरा हुआ है। वे सीबीआई, सीवीसी, सीएजी और सीआईसी जैसी संस्थाओं का डरती है। उनके पास इक्विटी पूंजी की कमी है। उनका कंपनियों को ऋण देने का कारोबार समस्याओं से घिरा हुआ है। सार्वजनिक बैंकों को बकाया कर्ज के भुगतान में चूक करने वाले कर्जदारों के साथ क्या तरीका अपनाना चाहिए? उन्हें भविष्य में कंपनियों को ऋण देते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? जैसे सवालों के हल खोजने में सरकार तो सरकार कोई भी मदद नहीं कर रहा है।
वर्तमान में तीन बिंदुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। पहला, जहां सार्वजनिक बैंकों के पास इक्विटी पूंजी की किल्लत है वहीं उन्हें सरकार का समर्थन भी हासिल है। सार्वजनिक बैंकों के लिए कारोबार की कमी नहीं है। ग्राहक उन पर उसी तरह भरोसा करते हैं जिस तरह भारत सरकार पर विश्वास करते हैं। इन बैंकों को इस भरोसे के ही चलते ग्राहकों से मिलने वाले सस्ते जमा के तौर पर भारी सब्सिडी मिलती है। इससे सार्वजनिक बैंकों को अपनी गतिविधियों के लिए समय और स्थान दोनों मिल जाता है। दूसरा, सार्वजनिक बैंकों की संगठनात्मक क्षमताएं काफी अलग तरह की हैं। भारतीय स्टेट बैंक का संचालन काफी बेहतर तरीके से होता है और वह निजी क्षेत्र के अधिकांश बैंकों से भी बेहतर है। दूसरी तरफ बहुत खराब ढंग से संचालित हो रहे सार्वजनिक बैंक भी हैं। बाजार पूंजीकरण अनुपात वाली कुल परिसंपत्ति एसबीआई के लिए जहां १२ गुना है तो कॉर्पोरेशन बैंक या यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया के लिए यह 71 गुना है। हमें कोई भी समाधान सुझाते समय इस विविधता को ध्यान में रखने की जरूरत है।
तीसरा, सार्वजनिक बैंकों की तरफ से कंपनियों को दिए गए ऋण के बकाया पर काफी ध्यान दिया जा रहा है लेकिन ये आंकड़े पुराने कर्ज के भुगतान और नए कर्ज के आवंटन के चक्र से निर्धारित होते हैं। नए कर्जों के आवंटन को लेकर फैसले हमेशा किए जाते हैं। सार्वजनिक बैंकों का कॉर्पोरेट ऋण वितरण इस कदर बाधित नहीं होना चाहिए कि नए ऋण बांटे ही न जाएं। एक-चौथाई सूचीबद्ध गैर-वित्तीय फर्मों का ब्याज कवर अनुपात 1.5 होने से उनकी हालत खस्ता है लेकिन शीर्ष की एक-चौथाई फर्मों का ब्याज कवर अनुपात 13 होने से उनकी बढिय़ा हालत है। सार्वजनिक बैंकों को बेहतर हालत में नजर आ रही कंपनियों को कर्ज देने में खुशी होनी चाहिए।
हमें तत्काल कदम की जरूरत वाले बड़े सवालों पर गौर करना चाहिए। भुगतान में चूक करने वाले कर्जदारों के साथ क्या किया जाए? इसी तरह भुगतान में चूक न करने वाले कर्जदारों के साथ क्या बर्ताव होना चाहिए? कर्ज बांटने का फैसला किस तरह किया जाए? चूककर्ता कर्जदारों के मामले में लेनदार बैंक को ऋणशोधन एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) के तहत गठित होने वाली ऋणदाताओं की समिति में सोचसमझ कर कदम उठाने की जरूरत है। मसलन, हाल ही में एक सार्वजनिक बैंक के प्रतिनिधि ने ऋणदाताओं की समिति में रखे गए एक कर्ज समाधान योजना के पक्ष में राय दी थी लेकिन बाद में वह बैंक उस फैसले से पीछे हट गया। इसके चलते दिवालिया प्रक्रिया की समयसीमा का पालन करना मुश्किल हो गया।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।