
यह सामाजिक समरसता की भावना का क्षरण है कि हमारी राजनीति आज भी एक जन समुदाय के घर खाने या न खाने की बहस पर केंद्रित है। उस शासनादेश को भी हम इसी संदर्भ में देख सकते हैं कि सरकारी कागजात में दलित शब्द का इस्तेमाल न किया जाए। इस उठापटक के बीच यह रेखांकित करना जरूरी है कि भारत में दलित प्रश्न कोई काल्पनिक सवाल नहीं है। हमारे समाज का एक हिस्सा आज भी अपने जन्म के आधार पर अपमान और प्रताड़नाएं झेलता है। बिला वजह मार-पीट, मूंछें उखाड़ लेने, घोड़ी न चढ़ने देने जैसी घटनाएं आज भी उसकी नियति बनी हुई हैं। कोई राजनीतिक दल ऐसी घटनाओं के खिलाफ सड़क पर नहीं आता। दलित प्रेम का प्रदर्शन सिर्फ भोजन तक, यह राजनीति नहीं सारे समाज के साथ धोखा है।
इससे दलितों की पहचान नहीं बदलती। क्या दलितों को कोई ऐसी घोषणा करनी होगी कि उनका सामना भी बिजली, पानी, सड़क, अस्पताल, पढ़ाई, सुरक्षा और रोजगार जैसी उन्हीं समस्याओं से हो रहा है, जो बाकी समाज को परेशान करती हैं? फिर कोई नेता या पार्टी उनके घर खाना खाने का आडंबर करे, इससे उनकी कौन सी समस्या हल हो जाएगी? भारतीय राजनीति में जरा भी संवेदना बची है तो वह देश के हर मनुष्य के लिए एक न्यूनतम मानवीय गरिमा सुनिश्चित करने का प्रयास करे । अफसोस कि इस बात की रत्ती भर भी चिंता उन राजनेताओं में नहीं दिखती, जो दलितों के साथ खाना खाते हुए अपना फोटो खिंचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। यह धोखे देना बंद हो, इसी में राष्ट्रहित है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।