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सही मायने में पीडीपी का कश्मीर के लोगों से वादा और भाजपा का अपना राष्ट्रीय चेहरा दोनों दलों के बीच में मतभेद बढ़ाने के लगातार कारण बनते गए। घाटी में सैन्य बलों की तैनाती में कटौती, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम समेत तमाम मुद्दों ने इसे समय-समय पर बढ़ाया। राज्य सरकार जहां कश्मीरियत को जम्हूरियत के साथ जोड़कर वार्ता, शांति बहाली के प्रयास समेत अन्य पर जोर दे रही थी, वहीं केंद्र सरकार पाकिस्तान से तल्ख होते रिश्ते, सीमा पर आतंकियों की घुसपैठ, प्रशासनिक प्रयास आदि में उलझ गई। पहले केंद्र सरकार का आतंक को मुंहतोड़ जवाब देने की मुहिम शुरू हुई और फिर आतंकी बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत के कुछ समय बाद से पूरी घाटी के हालात बेकाबू हो गए। अंतरराष्ट्रीय सीमा तथा नियंत्रण रेखा पर लगातार संघर्ष विराम उल्लंघन, जवानों की शहादत और आतंकी घटनाओं में निर्दोष लोगों के मरने की घटनाएं बढ़ गई। हालांकि आतंकियों को सुरक्षा बलों ने बड़ी संख्या में मार गिराया, लेकिन जम्मू-कश्मीर में अमन के रास्ते बंद होते चले गए। राज्य में पर्यटन, व्यापार, शिक्षा, सामान्य जन-जीवन सब काफी अस्त व्यस्त होता चला गया।
वैसे भी भाजपा और पीडीपी अलग राह पर थे। राज्य में राज्यपाल शासन की उम्मीद है। इस तरह से भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में अमन और शांति के प्रयास में केंद्र और राज्य के बीच में मौजूद वर्तमान राज्य सरकार की भूमिका को खत्म कर दिया है। भाजपा के समर्थन वापस लेने के बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। नेशनल कांफ्रेस के उमर अब्दुल्ला ने राज्यपाल से भेंट करके ताजा हालात पर चर्चा की और अपना पक्ष रखा है।
ऐसे में यदि आने वाले समय में राज्य में राज्य सरकार के गठन की संभावना नहीं बनती तो राज्यपाल शासन का लगना तय माना जा रहा है। राज्यपाल केंद्र सरकार के सुझाव के साथ तालमेल बनाकर राज्य में कानून-व्यवस्था, प्रशासन समेत अन्य जिम्मेदारियों को संभालता है। भाजपा का तर्क है कि ऐसा होने के बाद राज्य में आतंकियों के हौसले पस्त हो जाएंगे। अभी तो भाजपा को अपने हौसलों को मजबूत करना होगा “ आल आउट” के लिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।